
डाॅ.शिवेश्वर दत्त पाण्डेय
बिहार में एनडीए ने सीट बंटवारे की घोषणा कर दी है। भाजपा और जदयू को समान 101-101 सीटें, लोजपा (रामविलास) को 29, जबकि हम और रालोसोपा को 6-6 सीटें देकर गठबंधन ने न केवल चुनावी समीकरण तय किए हैं, बल्कि एक राजनीतिक संकेत भी दिया है — कि मतभेदों के बावजूद एनडीए एकजुट है।
यह बंटवारा संख्यात्मक से अधिक मनोवैज्ञानिक महत्व रखता है। लंबे समय से यह चर्चा थी कि भाजपा अपने बढ़ते जनाधार के कारण नीतीश कुमार की जदयू से अधिक सीटें चाहेगी। परंतु भाजपा ने बराबरी का हिस्सा देकर यह दिखाया कि सत्ता की राजनीति में भी सहयोग और सम्मान की जगह है। यह निर्णय बिहार की राजनीति में “साझेदारी के संतुलन” का नया उदाहरण है।
जदयू के लिए यह फार्मूला राहत भरा है। नीतीश कुमार, जो कई बार गठबंधन में अपनी राजनीतिक अहमियत के सवालों से जूझते रहे हैं, अब इस बराबरी के हिस्से के बाद फिर से साझा नेतृत्व की स्थिति में नजर आते हैं। भाजपा ने व्यावहारिक राजनीति को प्राथमिकता दी है, क्योंकि बिहार की जमीन पर बिना जदयू के गठबंधन की मजबूती अधूरी रहती।
चिराग पासवान की लोजपा (रामविलास) को 29 सीटें देकर एनडीए ने युवा और दलित मतदाताओं की दिशा में संदेश भेजा है। वहीं मांझी और कुशवाहा जैसे क्षेत्रीय नेताओं को उचित सम्मान देकर सामाजिक संतुलन साधने का प्रयास किया गया है। यह एनडीए की उस नीति का हिस्सा है जो कहती है — किसी को अलग नहीं, सबको साथ लेकर चलना ही स्थिर शासन की कुंजी है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस बंटवारे के साथ एनडीए ने यह साबित किया है कि चुनाव केवल मतपत्रों से नहीं, संदेशों से भी लड़े जाते हैं। यह संदेश विपक्ष के लिए स्पष्ट है — गठबंधन में मतभेद नहीं, परिपक्वता है।
अब असली चुनौती उम्मीदवारों के चयन और जमीनी स्तर के तालमेल में है। बिहार की राजनीति में सीटों का बंटवारा केवल गिनती नहीं, बल्कि जातीय समीकरणों और स्थानीय प्रभाव का विज्ञान है। यदि एनडीए इस संतुलन को व्यवहार में भी कायम रख सका, तो यह समझौता उसकी चुनावी जीत का आधार बन सकता है।
कुल मिलाकर, यह सीट बंटवारा एनडीए के लिए संगठनात्मक आत्मविश्वास और सहमति की राजनीति का प्रतीक है। बिहार की जनता अब यह देख रही है कि क्या यह एकजुटता चुनाव मैदान में भी उतनी ही दृढ़ रहती है, जितनी कागज़ पर दिखती है।
डाॅ.शिवेश्वर दत्त पाण्डेय
समूह सम्पादक

