साहित्य

एक नयी नज़्म

मंजुला शरण 'मनु'

भाप बन कर जो उठा था ,
दिल के अंदर घुमड़ कर ।
आज बारिश की तरह
बरसा है जैसे धार बन कर ।
कोई तीसमारखां होता नहीं,
ग़म छुपाने के हुनर में।
लाख कोशिश हो मगर ,
भीगे पत्तों सा सुलग कर
इक धुंआ सा उठता है जिगर में।
कौन मरता है यहाँ,
जीने के लिए?
एक दरिया का ज़हर भी,
कम है, पीने के लिए ।
मिलती नहीं है ,जो वज़ह
वो ढ़ूँढ़ कर लाएँ कहाँ से ?
तुमको जाना था…..
मगर क्यों गए इस तरह से ?
जिंदगी उठ जाती है यूँ
दुनियाँ के बाज़ार से ।
राह तकती हैं उम्मीदें
” साहिबे आजार” से ।

मंजुला शरण ‘मनु’
राँची, झारखण्ड़।

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