आलेख

कर्म ही जीवन

रविशंकर शुक्ल

मेरे पिता जी,श्री राजबंशी शुक्ल का जन्म उनकी आठवीं कक्षा के प्रमाण पत्र के अनुसार 30 सितम्बर 1905 को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री नवनाथ शुक्ल और माता का नाम श्रीमती फूलेश्वरी देवी शुक्ला था।
नवनाथ शुक्ल के कुल छै पुत्र और दो पुत्रियां थी। इसमें से एक पुत्री का विवाहोपरांत असमय देहांत हो गया था, जिनकी शादी डुमवलियां में हुई थी और दूसरी पुत्री चंद्रकुंवरि की शादी,बांसपार(महाराजगंज) के एक जमींदार घराने के मिश्र परिवार में हुई थी। मेरे फूफा जी का नाम जानकीशरण मिश्र था। अब तो बुआ और फूफा के अलावा उनके दोनों पुत्र भी दिवंगत हो चुके हैं। बाबा के क्रमशः तीनों कनिष्ठ पुत्रों का देहांत प्लेग महामारी से हो गया। उसमें से इनके सबसे छोटे बेटे खरवंश शुक्ल महामारी से पूर्व कक्षा आठ में पढ़ते थे एवं मेरे ताऊ जी स्वंतंत्रता संग्राम सेनानी पं राजबली शुक्ल के अनुसार बहुत सुन्दर कविताएं लिखते थे। राजबली शुक्ल के बारे में अभी हाल ही में आई श्री रामसागर शुक्ल जी की महत्वपूर्ण पुस्तक ” आईये देवरिया चलें ” मे कुछ विवरण का उल्लेख है।
राजबली शुक्ल और राजबंशी शुक्ल की शिक्षा लगभग साथ ही साथ हुई। कक्षा क्रम मे दो वर्ष का अंतर था।
इन लोगों की प्राईमरी स्कूल की शिक्षा करायल शुक्ल और कपरवार से हुई और फिर आगे की पढ़ाई बरहज में।
फिर हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए यह लोग बनारस चले गए। वहां यह लोग और देवनंदन शुक्ल (प्रथम विधायक 1952) और उनके छोटे भाई बाबूनंदन शुक्ल क्वींस कालेज में साथ साथ रह कर पढ़ने लगे। उस समय देवनंदन शुक्ल ग्रेजुएशन कर रहे थे। मेरे पिता जी हाईस्कूल की फाईनल परीक्षा देने वाले थे। इसी बीच नवनाथ शुक्ल के बड़े बेटे राजधारी शुक्ल कलकत्ता नौकरी करने चले गये थे, ताकि दोनों छोटे भाईयों की शिक्षा में संबल प्रदान हो सके। दुर्योग वश उनका असमय देहांत हो गया था और फिर राजबली शुक्ल को कलकत्ता की तरफ प्रस्थान करना पड़ा।
इधर हाईस्कूल की परीक्षा देने के पहले मेरे पिता राजबंशी शुक्ल को चेचक निकल गया। संक्रामक बीमारी के कारण परीक्षा देना मुश्किल हो गया। अंग्रेज प्रिंसिपल ने सीसे का केबिन बनवाकर परीक्षा की अनुमति दिया। खैर राजबंशी शुक्ल ने दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया और क्वींस कालेज में सर्वोच्च अंक भी प्राप्त किया।
मेरे ताऊ राजबली शुक्ल की गतिविधि जीविकोपार्जन के साथ साथ कुछ कुछ क्रांतिकारी और फिर राजनैतिक होती गयी। इन्हीं परिस्थितियों में राजबंशी शुक्ल भी कलकत्ता चले गये और घनश्याम दास बिरला के केशवराम काटन मिल मे नौकरी करने लगे। 24,गार्डेन रिच रोड,मटिया बुर्ज,खीदिरपुर,कलकत्ता उनका निवास स्थान था।
वह केशवराम काटन मिल मे कार्य करते हुए अन्य विभागों में प्रबंधक के पद पर,अंत में स्टोर प्रबंधक थे।सन् 1958 मे पिता जी दो साल पहले ही रिटायर हो गए। इसका कारण यह था कि वह एक डेढ़ साल पहले से ही बीमार चल रहे थे। उनको दमा और ब्लड प्रेशर था।
बारह सितम्बर 1953 में मेरा जन्म हुआ। 1951 में मेरे ताऊ जी के बड़े बेटे केशवचंन्द्र शुक्ल को इंजीनियरिंग करने के लिए इन लोगो ने बी.एस-सी.करने के उपरांत लंदन (यू.के.)भेज दिया।
उनको आर्थिक सहायता पिता जी ने लगभग नौ साल तक किया।
इस बीच इन लोगो ने अपनी मातृभूमि की तरफ भी कई मील के पत्थर जैसे बड़े कार्यो को अंजाम दिया।
पहले तो अपनी आधी जमीनो का बंधक छुड़वाया जो इन लोगों की शिक्षा के समय हो गया था। भिन्न भिन्न जगहों पर दस कुएँ बनवाए। खेती के लिए अतिरिक्त जमीन पहले नेपाल में खरीदी। फिर उसके किसी कारण वश अपने अधिकार क्षेत्र से निकल जाने के कारण पुनः जमींदारी टूटने के समय अपने बहनोई के बाइस गाँव की जमींदारी मे से एक गाँव कोटवां (पहले जिला गोरखपुर अब महाराज गंज)में जमीन खरीदी। गांव करायल शुक्ल मे घर और घोठे पर सात आठ खंड में मकान बनवाया। पुराने बाग के अलावा दो-तीन नये बाग लगवाये।
अपने पिता जी श्री नवनाथ शुक्ल के नाम पर करायल शुक्ल मे श्री नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल अपनी भूमि में खोला। जो अब जिला परिषद के अन्तर्गत है। गांव के आपसी मतैक्य न होने के कारण नहीं तो वह कम से कम इण्टर कालेज होता।
मैंने एक पिता जी की डायरी देखी थी जिसमें उस समय के ऊर्दू शायरी के लगभग डेढ़ हजार से उपर शेर लिखे हुए थे।
गुरूवर मोती बी.ए.जी से उनके दो-तीन मुलाकात का मैं साक्षी रहा हूँ। उन्ही मुलाकातों मे एक बार गुरु जी ने शेक्सपियर रचित सानेट का हिन्दी पद्यानुवाद दिया था। उसके काफी अंतराल के बाद सन् 1979 के आसपास मेरे श्वसुर मेजर इन्द्रजीत तिवारी के सौजन्य से कलकत्ता से कुछ किताबों का बंडल आया तो देखा कि पिता जी ने भी किसी अंग्रेज कवि के काव्य संग्रह का हिन्दी में गद्यानुवाद किया था “प्रभाती ” नाम से
1937 के आस-पास। अब तो सभी कुछ अप्राप्य है।पर उन्होंने मात्र वही एक अनुवाद ही किया था।
इसमें दिक्कत यह है कि अब ना तो वह पुस्तक उपलब्ध है न ही मुझे उस अंग्रेज कवि का नाम याद है। अनुवादित पुस्तक का नाम ‘प्रभाती’ था,पतली पुस्तक थी। चाइना बाजार स्ट्रीट,कलकत्ता से प्रकाशित थी।
एक बार बरहज बाजार से लौटते वक्त विश्वनाथ त्रिपाठी जी के यहाँ दोपहर का भोजन किया था।
आज के दिनों में भी मेरे गाँव मे कुछ लोग मिल जायेगें यह कहते हुए कि हमारे परिवार से संबंधित सारे कीर्तिस्तंभ पिता जी के द्वारा निर्मित थे।
1963 में मेरे बाबा नवनाथ शुक्ल का देहांत 110 वर्ष की आयु में हुआ। जिसकी वह पूर्व घोषणा कर चुके थे,बस मेरे पिता जी को बीमार रहने की वजह से यह बात नहीं बताई थी।
मेरे घोठे पर कई एक बार श्री सत्यव्रत जी महाराज,काका जी महाराज के साथ पधार चुके थे। पुजारी जी महाराज के यहाँ रूक कर ही मैंने हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट की परीक्षा दिया था। सर्वदेव द्विवेदी (पुजारी जी के भतीजे) से परीक्षा के दिनों में घनिष्ठ मित्रता हो गयी थी।
पिता जी किसी वार्तालाप के सिलसिले में बताया था कि जब वह लोग बरहज बाजार से पढ़कर निकलते थे तो कस्बे के बाहर भुंईधरे मे से ओम ओम की ध्वनि निकलती थी,उस समय इन लोगो को डर भी लगता था। बाद के दिनों में पता चला कि वहीं अनंत महाप्रभु जमीन के नीचे तपस्यारत रहते थे। कालांतर में वह स्थान परमहंस आश्रम बरहज के नाम से प्रसिद्ध है।
सामाजिक प्रतिष्ठा पिता जी की अद्भुत थी। बनारसी शर्मा जी उनके मित्रों में से थे और संबंधी एवं पड़ोसी थे। उनके बेटी की शादी में वह जनवासे में गये। घराती और बाराती पक्ष के कुल व्यक्तियों की संख्या हजार से उपर थी। जब पिता जी मेरे साथ पहुँचे तो पूरे जन समुदाय ने खड़े होकर स्वागत किया।
1966 में वह कलकत्ता गये,कुछ अपने इलाज के लिए और कुछ अपने पैसे (लगभग सत्तर हजार) जो उन्होंने अपने मित्र दीपचंद चांडक को एक अलमारी के कारखाने में लगाने को दे रखा था।
बीच में पंपिंग सेट लेने के लिए कुछ कागजो पर हस्ताक्षर कराने के लिए मेरे क्षेत्र के ग्राम सेवक रामहर्ष यादव कलकत्ता पिता जी से मिलने गये तो वापसी में पिता जी ने रिपेयरिंग के बाद अपनी दो सुन्दर घड़ियाँ और चाँदी की लक्ष्मी-नारायण की मूर्ति भेजी थी जिन्हें देखकर हम बाल-मंडली बहुत खुश हुए,एक घड़ी तो उनमें से बहुत दिनों तक मैं बांधता भी रहा।
यादें ही यादें हैं अतः अब पीछे चलता हूँ।
मेरे आरंभिक बाल्य जीवन के पाँच साल जो मैंने कलकत्ता मे बिताये थे, उसी कालखण्ड मे की एक घटना है। अचानक पूज्य पिता श्री राजबंशी जी शुक्ल को एक सूचना आती है कि आप का विदेश (लंदन) से ट्रंक काल आया है। पिता जी जब बात करने फैक्ट्री आफिस की तरफ तो मेरे को भी साथ लेकर चल दिए। उन दिनों ट्रंक काल में काफी तेज आवाज मे बोलना पड़ता था। पिता जी से भैया की कई सारी बातें हुई, अब वो सब तो याद नहीं है पर बाद में पिता जी के आज्ञानुसार मैंने भी भैया को नमस्ते किया और उनका आशीर्वाद लिया। समय का पहिया घूमता रहा, पिता जी सन् 1958 में सपरिवार गाँव करायल शुक्ल पहुँच गए, पर इस बीच पिता जी लगभग 9 साल तक भैया की आर्थिक सहायता करते रहे।
सन् 1962,एक ऐतिहासिक साल,देश में चीन-भारत युद्ध और परिवार मे केशव भैया का भारत आगमन फिर उनका गाँव में आना। गाँव में उनका अपने चाचा जी से मिलना (जिन्हें, वह भैया के ही कथनानुसार, उनके बेटों से भी अत्यधिक प्रिय थे)चाचा जी का पैर छूना,फिर चाचा-भतीजे का प्रगाढ़ आलिंगन पुनः उनके चाचा जी द्वारा उनके बालों को और उनके माथे को चूमना,यह सब पावन प्रेम का अनिर्वचनीय दृश्य था। आँगन में खड़े अन्य सुहृद जनों अहा अहा और साधु साधु का उद्बोधन, मानों ऋषियों और देव गणों की कोई संगति चल रही हो।
लगभग 12 दिनों के करायल शुक्ल प्रवास में वह कई रिश्तेदारियो मे गए तत्पश्चात कलकत्ता गए पुनः विदेश (लंदन) के लिए प्रस्थान।
भैया के करायल शुक्ल प्रवास में तीन उल्लेखनीय घटना है। तीन दिन भैया, छोटे भैया (श्री कर्म चन्द्र शुक्ल)एवं बाल कौतूहल वश मैं एवं साथ में कुछ बालकों का दल,सायंकाल मे सूर्यास्त के समय का भैया द्वारा कैमरा से फोटो लेने का प्रयास देखते रहे। अब वह कितनी तस्वीर U.K.लेकर गए यह मुझे नहीं पता है, पर एक-दो दिन तो प्रयास करने मे ही रोशनी कम होने से फोटो लेने का काम बिगड़ जाता था।
एक दिन मैं अपनी English Writing की कापी पर कुछ लिख रहा था जिसे उन्होंने देख कर प्रशंसा किया था, यह बात अलग है कि उन्हीं पूर्वजों की कथा आज मैं International Handwriting मे लिख रहा हूँ।
सन् 1963 में, मेरे बाबा जी पूज्य श्री नवनाथ शुक्ल का ,लगभग 110 वर्ष की आयु मे, देहांत हो गया साथ ही साथ एक युग का अवसान। इतिहास अब सन् 1964,के तरफ दस्तक देने लगा। सन् 1964 मे दो पारिवारिक और तीसरा देश से संबंधित घटना हुई। मेरा यज्ञोपवीत संस्कार इसी साल हुआ,श्री केशव भैया का दुबारा भारत आगमन हुआ अपने सुन्दर-सुन्दर द्वय बाल-गोपाल के साथ,और वह 3200 या 3500 p.m. की salary पर Asiatic Oxygen में Service करने लगे। यह सार्वजनिक हो गया कि वह गार्हस्थ्य जीवन मे प्रवेश कर चुके हैं। समाज-परिवार कुछ कुनमुनाहट के बाद भी यह सर्वथा सहज और स्वीकार्य था, सभी ने खुले दिल से स्वीकार कर लिया।
सन् 1964 का साल गति पर था, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का देहांत 27 मई को हो गया। जिस दिन चाचा नेहरू (वह बच्चों मे इसी नाम से प्रसिद्ध थे,कलकत्ता के किसी एक कार्यक्रम में मैं और मेरी बड़ी बहन अमला दीदी पिता जी के पहल पर उनसे हाथ मिला चुके थे)का देहांत हुआ, पूज्य पिता श्री राजबंशी शुक्ल और पूज्य ताऊ जी श्री राजबली शुक्ल मे Who After Nehru पर वार्तालाप चल रहा था और दोनों लोगों ने आपस मे विमर्श के बाद यह घोषणा की, कि लालबहादुर शास्त्री और गुलजारीलाल नंदा में कोई भी प्रधानमंत्री हो सकता है। गुलजारी लाल नंदा कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनें, और लालबहादुर शास्त्री बाद मे सदन के नेता चुने गए तत्पश्चात भारत के प्रधानमंत्री बनें।
1964 ईस्वी का समय, मैं आठवीं की परीक्षा दे चुका था। श्री श्रीनिवास भैया (मँझले भैया की बड़ी पुत्री जो मेरे से 6 महीने छोटी है)की बेटी कुसुम, मैं और मेरे ताऊ जी श्री राजबली शुक्ल कलकत्ता के लिए रवाना हो गये।मेरे पूज्य पिता श्री राजबंशी शुक्ल एवं मेरी मां श्री मती कृष्णा देवी शुक्ला का यह विचार था कि बेटा कलकत्ता जाकर एक बेहतरीन विद्यार्थी बनेगा, इसकी पढ़ाई अच्छी तरह से हो सकेगी। 11साल का बालक मैं (रविशंकर शुक्ल)अपनी हम उम्र भतीजी के साथ जब ट्रेन पकड़ने के लिए अपने मकान के पास की गली से निकला तो माता-पिता को प्रणाम करने के बाद मैं गली में खूब रोया,भतीजी मेरे से छोटी होती हुए भी मुझे चुप करा रही थी। समय चलता रहता है, इतिहास इसके सापेक्ष बदलते रहते हैं, सच्ची कहानियों मे मोड़ आता है। बकौल डा.शम्भु नाथ सिंह– समय की शिला पर मधुर चित्र कितने किसी ने बनाये किसी ने मिटाये।
बहरहाल कलकत्ता महानगर मे पहुँच गए, 24,Garden Reach Road, Matiaburz मे जन्म से 5 साल तक रहे,अब पुनः 120,Cotton Street, Bada Bazar मे एवं Park Circus मे, कुल मिला कर 2 साल का और कलकत्ता प्रवास। यहां स्वयं से संबंधित घटनाओं का उल्लेख इसलिए जरूरी हो गया है क्यों कि कहीं न कहीं इनका तारतम्य पूज्य पिता श्री राजबंशी शुक्ल और श्री केशवचंन्द्र शुक्ल से जुड़ता है।
“कुछ अपनी भी ” मेरा जन्म 12 सितम्बर सन् 1953 में कलकत्ता (मटिया बुर्ज) मे हुआ था। जन्म से पांच साल के उम्र तक मैं कलकत्ता मे रहा जिसकी दो-चार धुंधली सी स्मृति आज भी मेरे मानस-पटल पर अंकित है।
(1) पहली घटना घुटनों के बल चलते हुए इलेक्ट्रिक हीटर को पकड़ने की है। मैं तो हीटर की आंच के लाल रंग पर आकर्षित था,जिससे मेरी पूज्यनीया मां ने मुझे बचाया था।
(2)दूसरी घटना मेरे इसी आयु क्रम की है जब मैं उबलती दाल में हाथ डालने जा रहा था, पर माँ की चौकस निगाहों से कहाँ बचता सो सही सलामत बच गया।
(3)तीसरी घटना मेरी बैटरी कार (खिलौना) की विक्टोरिया मेमोरियल के पास से ग़ुम हो जाने की है मेरी बाल-सुलभ लापरवाही वश।मैं मझिले भैया श्री श्रीनिवास शुक्ल के संग धर्मतल्ला घूमने गया था।
(4)चौथी घटना एक बड़े खिलौने की दुकान पर की थी, मैंने खुद से चलाने वाली एक जीप खरीदने का हठ किया जो शायद बैटरी से चलती थी और पिता जी ने नहीं खरीदा था।
(5)पाँचवीं घटना गंगा सागर यात्रा मे गलती से दूसरे बस में बैठने की है, जिसमें मैं और मेरी बड़ी बहन अमला दीदी दूसरे बस में चढ़ गए, बस चल भी पड़ी,पहले बस मे जो हम लोगों की थी उस बस मे माँ, मौसा और मौसी इत्यादि थे ।हम दोनों रास्ते मे खूब रो रहे थे, लगभग तीन-चार स्टाप के बाद हम लोगो को अपनी बस मिली।
“तत्पश्चात करायल शुक्ल की ओर ” बस से उतरना, काक द्वीप और स्टीमर की यात्रा कुछ धुंधली सी स्मृति और है। एक दिन मझिले भैया के साथ थियेटर जाना भी याद है पर यह सब इतना नहीं है कि इस पर कुछ लिखा,पढ़ा जाए।
खैर मेरी आयु लगभग पांच साल की हो चुकी थी। पिता जी (जिनको मैं बाबू जी कहता था)दो बर्ष की बिमारी के पश्चात अपनी नौकरी के समाप्त होने के दो बर्ष पहले ही रिटायरमेंट ले चुके थे। केशवराम काटन मिल मे Mr.Hada नामक एक नये G.M. आये हुए थे, पिता जी उस समय कंपनी के Store Manager थे, पर बीमारी के चलते उस समय कंपनी के अस्पताल में भर्ती थे, पर वहीँ से आवश्यक कागजात पर हस्ताक्षर करते थे और निर्देश दिया करते थे। लेकिन एक दिन हाड़ा साहब जो नये जी.एम.आये हुए थे, उन्होंने एक बार पिता जी को अपने किसी कुलीग पर हस्ताक्षर करते समय झल्लाते हुए देख-सुन लिया फलस्वरूप पिता जी को समूचे लाभ के साथ सेवा से अवकाश लेना पड़ा।
पूरा परिवार माँ, बाबू जी, अमला दीदी, छोटी बहन बेबी और मैं, यह सभी लोग जो गंगासागर यात्रा के समय ही मटिया बुर्ज से, 120,Cotton Street, Bada Bazar(Tulapatti)आ गये थे तत्पश्चात करायल शुक्ल की तरफ रेल यात्रा से रवाना हो गये।
संभवतः कलकत्ता से बरहज बाज़ार तक की यात्रा तीन बार ट्रेन बदलने पर और लगभग 30 घंटो मे पूरी होती थी। वहां से 10 km.गाँव पड़ता है। कलकत्ता से चल कर बनारस में ट्रेन बदलना पड़ता था उसके बाद भटनी जं. पहुँचने के बाद छोटी लाइन से बरहज तक यात्रा होती थी अतएव बरहज बाज़ार पहुँचने में ज्यादा रात हो गई इसके कारण गाँव की यात्रा अगले दिन आरंभ करनी पड़ी।
तद्नुसार बरहज बाज़ार से करायल शुक्ल तक की यात्रा बैलगाड़ी से सुबह आरंभ हुई। दोपहर से पहले हम लोग गाँव पहुँच गए।
गाँव-घर,पहुँच कर, मुझे तो बस इतना याद है कि मेरे पुराने और पहले खंड वाले वाले मकान में दो महिलाएं हम लोगों के स्वागत मे हंसमुख हुई जा रही थीं, वह मेरी बड़ी बहनें क्रमशः बच्ची दीदी और विमला दीदी थीं। बच्ची दीदी हम भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं और नाम ‘सावित्री’ था।यह दोनों व्यक्ति बरामदे में खम्भों के पास खड़ी थीं।वैसे तो घर पहुँचने पर पास मे ही इधर उधर थे,पास-पड़ोस लोग भी एकत्रित हो गए थे।
यहाँ एक बात का उल्लेख आवश्यक समझता हूँ मेरी बचपन मे एक कमी थी कि मुस्कराहट वह भी दंतुरित मुस्कराहट देख कर बहुत चिढ़ता था। बाद मे तो दोनों बड़ी बहनो से अच्छी दोस्ती हो गई।
इतिहास करवट ले रहा था, यह सन् 1958 का था। 1959 ईस्वी मे मुन्नू बाबू का जन्म हुआ। परिवार में खुशियों ने दस्तक दी। सन् 1960 मे मेरी छोटी बहन बेबी (चन्द्रप्रभा)को हैजा हो गया। पकड़ी गाँव से डा.रामनाथ आते थे, लगातार इन्जेक्शन और दवा इत्यादि देते रहते थे। बाबू जी बोलते थे, डाक्टर, डाक्टर से फीस नहीं लेता है, पर फीस देते थे। बहरहाल बेबी एक-डेढ़ महीने में ठीक हो गयी,एक प्रकार से मरने से बचीं क्यों कि भयंकर रूप से बीमार थीं।
समय चलता रहा, नित्य दैनिक शौच इत्यादि के लिए मैं भी बाबूजी के साथ सुदूर ताल तक आता-जाता रहा। मेरे पितामह जो ‘बबुआ’ के नाम से प्रख्यात थे श्री नवनाथ शुक्ल, उस समय तक भोजन करने खास कर रात्रि का,अपने घोठे से घर नहीं आ पाते थे। तो उनका भोजन घर की कोई न कोई महिला घोठे पर ही जाकर, खाना बना कर और बबुआ को खिला कर आती थी। मैं भी कभी-कभी वहां प्रसाद ग्रहण करता था। घोठा भी मेरा उस समय मेरा कई खंडों में फैला हुआ मकान था, जो घर से 250 मीटर की दूरी पर था, एक बंगला और श्री हनुमान जी का मंदिर अभी भी है।
बाबू जी, लोगों की छोटी-मोटी चिकित्सा स्वयं किया करते थे। वह उस समय के आयुर्वेदाचार्य के Certificate Holder चिकित्सक थे, अतएव प्रति दिन सुबह-सुबह, 50/60 मरीज की भीड़ लग जाती थी, जिसमें कोई चोट वाला, कोई घाव वाला, विभिन्न प्रकार के आंखो की परेशानी वाले, कोई किसी अंग मे जला हुआ इत्यादि, इसी तरह के लोग होते थे। वह, सभी की निःशुल्क चिकित्सा बिना चेहरे पर शिकन लाये निर्वाध गति से किया करते थे।
सन् 1958 से 1962 बीच की कुछ अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं जो बहुत कुछ बाबू जी के व्यक्तित्व को उजागर करती हैं।मेरे पड़ोसी गाँव तलौरा के श्री बनारसी शर्मा जो कई रिश्तेदारियो के द्वारा मेरे परिवार से जुड़ते थे। शर्मा जी ने अपनी पुत्री की शादी, मेरे पहले मामा के गाँव बभनौली में, उन्हीं के परिवार मे तय कर दिया। यहां यह बताना आवश्यक हो जाता है कि मेरे पिता जी की दो शादी हुई थी जिसमें से पहली शादी बभनौली में हुई थी, बाद मे जब मेरी पहली माँ चेचक से देहांत हो गया तो पिता जी की दूसरी शादी कोल्हुआं गाँव में हुई थी। संयोग से मेरे दोनों ननिहाल पांडेय परिवार में हैं हालांकि गोत्र अलग अलग है।
उपरोक्त शादी में जनवासे के समय बाबू जी मुझे साथ लेकर तलौरा गाँव को गए। जब हम लोग पहुँचे तो घराती और बाराती अलग अलग तरफ़ इकठ्ठे होकर बैठ गए थे।
वहां जन-समुदाय की संख्या हज़ार से उपर की थी। जब बाबू जी वहां पहुंचे तो समूचे लोगों ने एक साथ खड़े होकर बाबू जी का अभिवादन किया तत्पश्चात जनवासे का शुभ कार्यक्रम आरंभ हुआ,वास्तव मे यह एक अनिवर्चनीय अभिराम दृश्य था।
कुछ दिनों बाद फिर मेरे ननिहाल कोल्हुआं गाँव में नर्वदेश्वर भैया की शादी, धौला गाँव में जो संतराव स्टेशन के पास पड़ता है, रेलवे के गार्ड साहब के यहाँ तय हो गई। उसमे भी कोल्हुआं गाँव से लेकर धौला गाँव तक की अविस्मरणीय यादें हैं, पर एक दो का उल्लेख आवश्यक समझता हूँ।
धौला गाँव बारात के समय लौटते वक्त मौसा जी श्री रामबहाल मिश्र के आग्रह पर पिता जी और मैं मौसा जी के गाँव मड़कड़ा गए। मौसा जी ने काफी आव-भगत की। मौसा जी रेलवे मे TTE थे।
दूसरी घटना यह है कि पूज्य नाना श्री रामविश्वास पांडेय के सभी दामाद इस शादी में इकठ्ठे हुए थे और सभी लोग नाना जी के आँगन मे एक साथ ही भोजन के लिए बैठते थे। मेरे कुल चार नाना लोग थे, रामविश्वास पांडेय, त्रिवेणी पांडेय, पुजारी पांडेय और चंन्द्रिका पांडेय। दो नाना लोगों का ही परिवार चला। दोनों नाना जी की तीन-तीन बेटियां थीं, और क्रमशः एक बेटा और दो बेटे थे ।उन दिनों कहीं भी आने-जाने के लिए इक्का-दुक्का बैलगाड़ी और साईकिल खास कर सिंगापुर की साईकिल का ही बोलबाला था। नर्वदेश्वर भैया जो श्री त्रिवेणी नाना के बड़े पुत्र च॔डी मामा के बेटे थे, उनकीं शादी में भी पिता जी विशिष्ट थे।
हमारे गाँव के ही श्री ब्रह्मदेव तिवारी के परिवार में उनके बड़े बेटे श्रीशंकर तिवारी की शादी सुविखर गाँव में हुई, उस बारात मे भी मैं, पिता जी के साथ-साथ गया था। तिवारी परिवार में, एक रामनगीना तिवारी थे जो पुराने पढ़े लिखे व्यक्तियों मे से एक थे और इलाहाबाद के एक इन्टर कालेज में प्रिंसिपल थे। उनका निवास स्थान अलोपी बाग़ में है। वह मेरे बाबूजी के आत्मीय जनों मे आते थे। सुविखर वाले बारात मे भी घरातियों के द्वारा भव्य स्वागत सत्कार हुआ।श्री ब्रह्मदेव तिवारी के छोटे सुपुत्र सम्पूर्णानन्द तिवारी मेरा मित्रवत व्यवहार था,यद्यपि आयु और शिक्षा मे वह मेरे से वरिष्ठ थे।
सन् 1959 का आरंभिक चरण आते-आते पिता जी बीमार पड़ गए, उन्हें दमा,और हाई ब्लड प्रेशर की बिमारी थी।कभी-कभी ज्यादा परेशान करने लग जाती थी।पिता जी, माँ और मुझे साथ लेकर, देवरिया मे श्री देवनंदन शुक्ल के यहाँ रह कर, देवरिया सदर अस्पताल से, पाँच-छह महीने अपना इलाज कराये। एक बार सिविल सर्जन से मिलने गए तो उन्होंने अपने घर पर रात्रि भोज का निमंत्रण भी दे दिया, मैं और पिता जी, सिविल सर्जन के यहाँ रात का भोजन किये।
देवरिया में, मेरे ममेरे भाई नर्वदेश्वर भैया के जीजा जी, कैलाश पांडेय,देवरिया से सटे हुए इजरही गाँव के थे। उनके बड़े भाई अम्बिका पांडेय, देवनंदन शुक्ल के अक्सर आते-जाते थे, हम लोगों के तो रिश्तेदार ही थे। पांडेय जी की एक नई रेले साईकिल थी,जिसे मैं अक्सर मांग कर चलाता था। एक दिन सी.सी. रोड पर जो दो पट्टी वाली रोड होती थी मैं साईकिल चलाते हुए साईकिल को पट्टी के ऊपर-नीचे कर रहा था कि अचानक फ़िसल कर जोर से गिरा।फलस्वरूप उपर से नीचे तक शरीर में चोट लगी और कई जगह छील गया। बाबू जी एवं माँ के डर के मारे एक तालाब में पहले छीले हुए को धोया,तब जाकर घर पहुँच गया। पर सभी को जानकारी हो गयी, डांट भी पड़ी उसके बाद मरहम पट्टी हुई। एक दिन पिता जी बोले Half Boiled Eggs लेकर आओ। मै पूरा देवरिया रिक्सा लेकर ढूंढ लिया, कहीं नहीं मिला फिर पिता जी को बता कर दुबारा गया और Boiled Eggs लेकर आया, माँ तो छूती भी नहीं क्यों कि वह शुद्ध शाकाहारी थीं।
कुछ दिनों तक पिता जी का इलाज गोरखपुर में डा.लाहिड़ी के यहाँ हुआ था वहां का तो बस यह याद है कि मैंने बाबू जी से कह कर एक पेन खरीदा था। डाक्टर साहब के हास्पीटल के पास में ही हम लोग रुके थे।
जब बाबू जी खपरैल वाले घर के सामने वाला खंड बनवा रहे थे, जिसमें वह बाद मे रहने लगे, उसी समय की बात है ,सीढ़ियाँ बन रहीं थीं, मैंने किसी मजदूर को बहन की गाली दे दिया, पिता जी सुन लिए और कम से कम मुझे 50 चप्पल मारे। आज भी मेरे मेरे मुंह से, माँ, बहन और बेटी की गाली बहुत गुस्से में जब विवेक कोसों दूर हो जाता है शायद ही कभी निकलती हो।वह दिन याद आ जाता है।
सन् 1960-61 के आसपास के समय मे, उत्तर प्रदेश सरकार के शिक्षा मंत्री श्री कमला पति त्रिपाठी गाँव पुरैना शुक्ल मे आने वाले थे, वह,राजेन्द्र शुक्ल जो करायल शुक्ल प्राईमरी स्कूल के हेड मास्टर थे और उनके अनुज कुबेर नाथ शुक्ल के जो, संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी मे रजिस्ट्रार थे, इन लोगों के रिश्तेदार थे। कुबेर नाथ शुक्ल तो दो साल तक आगे चलकर विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। राजेन्द्र शुक्ल की बेटी, करुणा पति त्रिपाठी (कमला पति त्रिपाठी के छोटे भाई)से ब्याही हुई थी। अचानक एक दिन पिता जी द्वारा बनाए गए नये मकान के पहले कमरे में एक मीटिंग हुई। श्री देवनंदन शुक्ल (जो 1952 के चुनाव में बरहज विधान सभा क्षेत्र से M.L.A.भी रह चुके थे, 1957 मे श्री उग्रसेन से हार गए थे),श्री कुबेर नाथ शुक्ल, श्री कमला चौबे, श्री हरिवंश शुक्ल इत्यादि। इस मीटिंग में कुबेर नाथ शुक्ल ने यह प्रस्ताव रखा कि वह लोग एक संस्कृत महाविद्यालय पुरैना शुक्ल मे खोलना चाहते हैं। पिता जी ने यह स्पष्ट कर दिया कि आप कोई भी विद्यालय खोलिये पर उस विद्यालय का विपरीत प्रभाव श्री नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल, करायल शुक्ल पर नहीं पड़ना चाहिए।
खैर, श्री कमला पति त्रिपाठी आये, उस तथाकथित महाविद्यालय का उद्घाटन किये,जो बाद मे गर्गाश्रम जूनियर हाई स्कूल बना। कमला पति त्रिपाठी ने मेरे पिता जी के कहने पर उद्घाटन वाले दिन ही,अगले दिन का Lunch मेरे घर करने को स्वीकार किया
हालाँकि देवरिया के उस समय के D.M.Mr Mittal ने हल्के मन से कार्यक्रम पहले से नहीं तय होने और सुरक्षा कारणों का हवाला देकर आपत्ति जताई पर कमला पति त्रिपाठी के सामने ही पिता जी ने उन्हें डांट दिया था कि दो रिश्तेदारों के बीच मे बात नहीं करते हैं। कमला पति त्रिपाठी जी अगले दिन सरकारी अमले के साथ आये। त्रिपाठी जी और पिता जी इत्यादि खास लोगों ने पहले कमरे में भोजन किया और बाकी लोग बाहर बरामदे में भोजन किये।
हमारे नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक मुंशी उदय भान लाल, सुबह विद्यालय के प्रार्थना के समय कहते थे, कि ‘क’ कहूँगा, ‘ख’ कहूँगा, पर ‘ग’ नहीं कहूँगा। बड़े ही कद्दावर जीवट के आदमी थे। पहले साल तो गर्गाश्रम धूम-धाम से चला,नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल के छात्रों की आंशिक संख्या भी घटी,दूसरे साल गर्गाश्रम कुछ लड़खड़ाया , तीसरे साल उसकी इति श्री हो गई। उसका अनुदान, सरकार की तरफ से जो संस्कृत महाविद्यालय के नाम पर था, स्वनामधन्य लोग बर्षों तक समेटते रहे। ईश्वर, मुंशी उदय भान लाल की आत्मा को शांति प्रदान करें।
सन् 1960,के ही आस-पास के समय मे मेरी बुआ जी के छोटे सुपुत्र श्री नर्वदेश्वर मिश्र (मुन्नू भैया),नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल में अध्ययन हेतु अपने गाँव बांसपार से करायल शुक्ल आ गए। मुन्नू भैया ने इसी स्कूल से आठवीं कक्षा तक पढ़ाई किया। उनके सहपाठियो मे गुलाब मिश्र, विश्वम्भर शुक्ल,शारदा प्रसाद इत्यादि गाँव के लोग थे। मुन्नू भैया बचपन से ही प्रेरणास्पद बातें किया करते थे। एक दिन पुराने खंड वाले वाले मकान में माँ, चाची, मझिली भाभी, मैं और मुन्नू भैया बैठे हुए थे, अचानक चौका घर के पास बालू पर गेहुअन सांप के दर्शन हुए, मैं तो पहली बार देखा था, मुझे तो समझ मे ही नहीं आया कि क्या है, पर मुन्नू भैया ने सभी लोगों को तुरंत बताया।
सन् 1959-1962 ,के बीच मे ही मेरी दादी जी, श्रीमती फूलेश्वरी देवी जो ‘इया’ के नाम से प्रख्यात थीं, की छोटी बहन, मेरे घर पर आयीं। डेढ़-दो महीने मेरे घर अत्यंत सद्भाव और अपनत्व से प्रेम पूर्वक रहीं। साध्वी महिला थीं, उनके चेहरे पर एक आभामंडल था।
मेरे पिता जी के मौसेरे भाई (जो पिता जी के अन्य मौसी के पुत्र थे)श्री बंशीधर तिवारी भी एक-दो बार आये। वह पुलिस के रिटायर व्यक्ति थे, अपनी बंदूक के साथ चलते थे, हफ्ते-दस दिन मेरे घर बाबूजी से बातें करते हुए बीत जाता था। वह नौगांव गाँव के रहने वाले थे, पुराने जमींदार थे और हाथी-घोड़े के शौकीन थे।
एक बार सोनुहला गाँव से जो हमारे पिता जी का ननिहाल था श्री अक्षयवर चाचा भी आये। बाद के दिनों में तो उनका आना कई-एक बार हुआ।आत्मीयता उनके समूचे व्यक्तित्व से झलकती थी। वह पिता जी के ममेरे भाई थे।
इस लम्बे काल खंड में, सन् 1958 से 1966-67 तक, 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन श्री नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल के बच्चे ,”विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा ” गाते हुए स्कूल से मेरे घर तक सर्वप्रथम आते थे, राष्ट्र और राष्ट्रीय पर्व के जय घोष के पश्चात् ,श्री नवनाथ शुक्ल, श्री राजबली शुक्ल, राजबंशी शुक्ल अमर रहें के नारे लगाते थे।मुंशी उदय भान लाल और उनके सहायक अध्यापक, प्राईमरी स्कूल के हेड मास्टर, सहायक अध्यापक और बच्चे सभी साथ मे ही होते थे। पुनः मिठाई के लिए मुद्रा प्राप्त कर अन्य मुख्य जगहों पर फेरी लगाते हुए स्कूल पहुँच जाते थे। दोनों राष्ट्रीय पर्व अत्यंत धूम धाम से मनाया जाता था।
मुंशी जी, प्रत्येक साल, नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल में आठवीं कक्षा के छात्रों का विदाई समारोह प्रायोजित करते थे। स्कूल में श्री सत्य नारायण भगवान की कथा होती थी। पूरा स्टाफ़ और विद्यार्थी वर्ग, कथा-वाचन के उपरांत पंडित जी को भोजन करा कर फिर स्वयं भोजन करता था। खाने में कभी-कभी दही,चिउड़ा, पूरी और सब्जी या अधिकतर पूरी-सब्जी बनती थी।
इस कार्यक्रम का पूरा खर्च छठवीं, सातवीं कक्षा के छात्र और अध्यापक गण वहन करते थे। आठवीं कक्षा के छात्रों से खर्च हेतु कुछ भी नहीं लिया जाता था।
मेरे गाँव में एक कन्या प्राईमरी स्कूल था, जो मेरे घोठे के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में संचालित था। इसके औचक निरीक्षण के लिए, महिला उप-विद्यालय निरीक्षक एक दिन घोठे के बंगला पर पधार गयीं (यह बंगला अपने नये प्रारूप में अभी भी है)।वह, अविवाहित महिला थीं। उनके पिता दीक्षित जी, उत्तर प्रदेश पुलिस के l.G. रह चुके थे। उस समय संयोग वश श्री राजबली शुक्ल और श्री राजबंशी शुक्ल दोनों लोग उपस्थित थे। पिता जी के पूछने पर Mis.Dixit ने कहा कि वह Non-vegitarion है ।उनके Lunch में झींगा मछली बनीं। भोजन करते समय बातों ही बातों में पता चला कि वह श्री देवनंदन शुक्ल के छोटे भतीजे किशन चंद्र की साली हैं।सायं काल पाँच बजे वह खुशी खुशी देवरिया लौट गयीं।
संयोग से एक बार D.i.o.s (जिला विद्यालय निरीक्षक),करायल शुक्ल मे आ गए। वह ना तो ग्राम प्रधान के यहाँ गए ना कहीं और सीधे अपनी जीप से घोठे के बंगला पर आये, पिता जी से कईं सारी बातें करते हुए, जलपान के बाद सभी विद्यालय का निरीक्षण करते हुए जिला मुख्यालय चले गये।
उप-जिला विद्यालय निरीक्षक लोग तो कई बार आते-जाते रहे, एक बार करायल शुक्ल में समूचे ब्लाक का प्राईमरी स्तर पर खेल-कूद प्रतियोगिता हुई थी तीन चार दिन तक, उसमें भी जिला उप विद्यालय निरीक्षक, समापन समारोह मे आये थे।
नवनाथ शुक्ला जूनियर हाई स्कूल की स्थापना संभवतः सन् 1949 मे हुई थी। इस स्कूल की पूरी भूमि लगभग दो बीघा मेरे बाबा श्री नवनाथ शुक्ल की थी जिसे उन्होने स्कूल खोलने के लिए दिया था। इसके प्रथम प्रधानाचार्य लवकनी गाँव के श्री रामविलास शर्मा थे, जो संभवतः 6 से 8 महीने का कार्यकाल पूरा किए । उस समय स्कूल के प्रबंधक श्री कमला चौबे थे । कमला चौबे का प्रबंधकीय कार्यकाल लगभग इतना ही रहा । तत्पश्चात इसके प्रधानाचार्य मुंशी उदय भान लाल नियुक्त हुए। इसके प्रबंधक स्कूल कमेटी के तरफ से श्री राजबली शुक्ल (मेरे ताऊ जी) बनाए गए और वही स्कूल को जिला परिषद के सुपुर्द करने तक उसके प्रबंधक बने रहे । मुंशी उदय भान लाल 17-18 साल नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल से प्रधानाचार्य रहे। विंध्याचल यादव नामक एक अध्यापक के अभद्र व्यवहार के कारण सन् 1967 के लगभग मध्य में, मुंशी जी ने करायल शुक्ला छोड़ दिया और अपने बेटे राधेश्याम श्रीवास्तव(जो गोरखपुर के D.A.V.Inter College में लेक्चरर थे ) के पास गोरखपुर में रहने लगे।
स्कूल के प्रधानाचार्य,मुंशी जी के बाद, उसी शैक्षणिक साल के लिए उनके सहायक अध्यापक श्री रामगोविंद गुप्ता बनाये गये। वह कूर्हे गाँव के निवासी थे। वह भी एक शैक्षणिक काल पूरा करने के बाद कार्य भार छोड़ दिये। मुझे याद है कि वह जूनियर हाई स्कूल के कुछ उत्तर पुस्तिकाओं की जांच का कार्य मुझसे कराये थे। जब उन्हें उत्तर पुस्तिकाओं की जांच का शुल्क प्राप्त हुआ, तो जितनी उत्तर पुस्तिका मैंने जांची थी,उसका पैसा ईमानदारी से उन्होंने मुझे दे दिया।
अगले साल के आरंभ में नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल में केवल एक-दो अध्यापक ही रह गये थे। श्री सतानंद शुक्ल गाँव के एक प्रबुद्ध युवक थे, उन्हें जूनियर हाई स्कूल के बारे में बेहद चिन्ता होने लगी, हो सकता है कि यह बात उनके दिमाग में अन्यत्र कहीं से व्युत्पन्न कराई गई हो।इसके फलस्वरूप गाँव-जवार के संभ्रांत लोगों की प्राईमरी स्कूल करायल शुक्ल के परिक्षेत्र में एक बड़ी सभा का आयोजन किया गया। उस सभा में उपस्थित संभ्रांत लोग खुले रूप मे दो भाग में विभाजित हो गये। एक समुदाय तात्कालिक प्रबंधक श्री राजबली शुक्ल को समर्थन देते हुए सुधार की बात कर रहा था जिसमें ताऊ जी स्वयं, श्री राजनाथ चौबे, रामबृक्ष यादव इत्यादि थे, दूसरी तरफ श्री कमला चौबे, हरिवंश शुक्ल, सतानंद शुक्ल इत्यादि थे,यह लोग जूनियर हाई स्कूल की व्यवस्था को अपने हाथ में लेना चाहते थे।
पंडित राजबली शुक्ल ने, सतानंद शुक्ल को यह कह कर निरूत्तर कर दिया कि बिना मूंछ वालों से तो मैं बात ही नहीं करता हूँ। पर खुराफाती वर्ग कहाँ मानने वाला था, इस वर्ग ने सतानंद शुक्ल के नेतृत्व में पहले के अध्यापको को हटा कर दो-तीन नये अध्यापक स्कूल में रख दिया। उस समय तहसीलदार यादव नामक बड़े सज्जन मास्टर पहले पढ़ा रहे थे।
एक दिन प्राईमरी स्कूल के पूर्व हेड मास्टर श्री राजेन्द्र शुक्ला , ताऊ जी से मिलने आए तो ताऊ जी ने उनसे कहा कि जिला परिषद के अध्यक्ष श्री राज मंगल पांडे हैं और मेरी उनसे कभी मुलाकात नहीं हुई है तो राजेंद्र शुक्ल ने कहा मैं उनसे बात कर लेता हूं फिर आप मिल लीजिएगा । राजेंद्र शुक्ला जब राज मंगल पांडे से मिलने गए तो उन्होंने कहा मैं पंडित राजबली शुक्ला को अच्छी तरह जानता हूं वह सहर्ष कभी भी मुझसे मिल सकते हैं,मेरी-उनकी भेंट सौभाग्य की बात होगी।
ताऊ जी, जब राजमंगल पांडेय से मिलने गए तो उन्होंने यह भी कहा कि स्कूल का नाम श्री नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल ही रहना चाहिए यह बदलना नहीं चाहिए और ऐसा ही आश्वासन, श्री राजमंगल पांडेय ने भी दिया। परन्तु जिला परिषद के ही एक बाबू द्वारा सुविधा शुल्क मांगने और कुछ अपनी तरफ से ढीलेपन के कारण ऐसा संभव नहीं हो सका। नवनाथ शुक्ल जूनियर हाई स्कूल, करायल शुक्ल; जूनियर हाई स्कूल, करायल शुक्ल हो गया, शायद कोई तकनीकी अड़चन रही हो खैर श्री हरिनारायण शुक्ल का गाँव के ही स्कूल में पोस्टिंग हो गया।
स्कूल आज भी चल रहा है, पर जिस सपने के साथ मेरे परिवार ने इसे आरंभ किया था, कदाचित आज यह स्नाकोत्तर महाविद्यालय के रूप में होता लेकिन यह सभी लोगों का सहयोग मिलने पर ही संभव हो पाता। खैर ऐसा संभव नहीं हो सका, और यह स्कूल अपने प्राचीन रूप मे आज भी करायल शुक्ल में शोभायमान है।
अब मुझे गाँव, घर और अपने परिवार के सच्ची कहानी या इतिहास को थोड़ा पीछे की ओर ले चलना पड़ेगा क्योंकि घटना क्रम 1967 तक आ गया है।
बाबू जी से मिलने, कई एक बार तलौरा गाँव से श्री बनारसी शर्मा, एक-दो बार बेलही-खुदियां के शिवबंशी सिंह एवं तलौरा के ही बिशुनदेव पांडेय आते रहे। श्री मेघनाद शुक्ल और श्री जटाशंकर पुरैना शुक्ल से कई बार आये।
गाँव के ही विशुनपति बाबा जब ढाका मे किसी सेठ के पास नौकरी करते थे, तब भी पिता जी से मिलने आते थे। इन्हीं के चचेरे भाई श्री बाबुराम शुक्ल और श्री उदयभान शुक्ल (जो रेलवे मे सेवा रत थे)जब भी गाँव आते थे तो पिता जी से अक्सर मिलने आते थे।
बाबू जी, चावल,खाना बनाने के लिए(बासमती या काला नमक)बरहज बाजार से ही मंगाते थे। साल मे दो बार बैलगाड़ी से चावल, चीनी और अन्य आवश्यक सामान बरहज से आता था। इन्हीं सिलसिलों में एक-दो बार मोती बी.ए.से भेंट हुई। मोती बी.ए. ने शेक्सपीयर के सानेट का काव्यानुवाद पिता जी को भेंट किया।
श्री विश्वनाथ त्रिपाठी,बरहज नगर पालिका के अध्यक्ष थे, उनके यहाँ मैं और पिता जी, दोपहर का भोजन किये थे।पिता जी का इनसे अत्यंत घनिष्ठ संबंध था। बरहज आश्रम से हमारे परिवार का प्रगाढ़ सम्बन्ध था।श्री काका जी और श्री सत्यव्रत जी महाराज कई एक बार मेरे घोठे पर आ चुके थे। मैंने आठवीं, दसवीं और बारहवीं की परीक्षा बरहज आश्रम पर रह कर ही दिया था, पुजारी जी के यहाँ जो बाद मे काका जी के जघन्य हत्या के उपरांत बरहज आश्रम के महन्त बनें।
छेदी सुनार से पिता जी के अच्छे संबंध थे,पिता जी ने उन्हीं के यहाँ से दुबारा सोने की बटन चेन सहित बनवाई थी। बरहज चौराहे पर हरगोविंद जी की स्टेशनरी की दुकान पर बात-चीत करते हुए, उनकीं बगल के हलवाई की दुकान पर बाबू जी नाश्ता करने के लिए बैठते थे।
मैंने एक दिन खेल खेल में कटिंया डाल कर पोखरे से एक मछली पकड़ी। बाबू जी को दिखाया तो वह खुश हुए, मध्यम आकार की मछली थी,बाबू जी ने उसको भूना और चोखा बना कर खा लिए। इसी प्रसंग में एक पहले की दूसरी घटना याद आ रही है, हमारे घोठे के पीछे वाली छोटी गड़ही, जिसे पब्बर की गड़ही बोलते थे, गाँव के लोग गर्मी के दिनों में मछली मार रहे थे। रामअवध गोड़ ने सबसे बड़ी मछली पकड़ी, श्री सीताराम मास्टर चाचा के पिता जी श्री कपिलदेव शुक्ल क्षणों में मछली को उसके हाथ से लिए और वह या कोई और जब तक कुछ भी समझ पाता, कपिलदेव बाबा मेरे घर वाली गली के पार।
उस समय करायल शुक्ल में दो ही व्यक्ति बैलगाड़ी के गाड़ीवान थे एक कपिलदेव बाबा, दूसरे शिवबचन मेठ (धोबी)।मेरे बाबूजी भी यातायात के लिए इन्हीं दोनो व्यक्तियों की सेवा लेते थे।
इस बीच पिता जी दो-तीन बार डहरौली गये। पहली बार जब वह डहरौली गये तो वहां से मै मुंशी उदयभान लाल के साथ उनके गाँव नारायनपुर गया, मुंशी जी के धर्मपत्नी से मिला। पिता जी स॔भवतः चिट्टू भैया (अमृतनाथ तिवारी)और उससे पहले उनके बड़े भाई राधेश्याम तिवारी के शादियों में ही डहरौली गये थे।
डहरौली गाँव में श्री श्रीनिवास भैया की ससुराल है। इनके श्वसुर जी बद्री मणि का उस क्षेत्र में अच्छा खासा नाम था और वह आधी जमीन के मालिक होने के कारण अधियरा बाबा के नाम से प्रसिद्ध थे। उनकी पुत्री विद्या का विवाह मेरे यहाँ हुआ है,वह हमारी मझिली भाभी है।
पिता जी के साथ एक बनारस जाने का भी प्रसंग है। मेरी उम्र उस समय नौ-दस साल रही होगी मै अपने पिता जी एवं उनके एक मित्र के साथ जो गाँव में “नेता जी ” के उपनाम से मशहूर थे,मार्कण्डेय जी के दर्शन करने के पश्चात वहां पहुंचा था।मै आठ-दस दिनों से कुछ खा पी नहीं रहा था, अतएव पिता जी मुझे लेकर सर्वप्रथम मार्कण्डेय जी गये,वहां एक कुटिया में एक साधु(सिद्ध पुरुष) के दर्शन करने पर और समस्या बताने पर उन्होंने पेड़ा का प्रसाद दिया और बताया कि बालक आज और कल दिन में भी कुछ नहीं खायेगा पर कल शाम से निश्चित ही खाना खायेगा। सब कुछ वैसा ही घटित हुआ और तत्पश्चात वहां से हम लोग बनारस गये। बनारस में मेरे पिता जी एक मौनी बाबा से मिले,वह स्लेट पर लिखवाकर प्रश्न पढ़ते थे और फिर उसका उत्तर स्लेट पर ही लिख देते थे। अब क्या प्रश्न थे और क्या उत्तर थे वह सब कुछ तो मुझे याद नहीं है पर उसके बाद अगले दिन पिता जी मुझे फकीरी इलाज के बाद मेडिकल इलाज के लिए एक डाक्टर को दिखाने ले गये। डाक्टर साहब ने भूख लगने के लिए कोई टानिक लिखकर दे दिया। फिर हमलोग विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए गये। पानी मे दिये की लौ के साथ चलने वाली नाव (खिलौना) मैंने पहली बार बनारस में ही देखी। खरीदने की भी लालसा थी मन में पर पूर्ण बालहठ शायद पिता जी से नहीं कर सका था।
22 नवंबर1966 में कलकत्ता मे ही दुर्योग वश पिता जी का देहांत हो गया। टेलीग्राम से सूचना आई थी “Uncle Rajbanshi expired “, प्रेषक थे ताऊ जी के छोटे सुपुत्र श्री कर्मचन्द्र शुक्ल अब इस हृदयविदारक दारूण सूचना में किसी को भी expired का अर्थ समझ में नहीं आ रहा था , संयोगवश उसी समय श्रीशंकर तिवारी जो हाल ही में M.Sc. किये थे , उधर से निकले और यह बताया कि “तुम्हारे पिता जी मर गये।”
वह समय हम लोगों के लिए भयंकर विपत्ति वाला था।मेरी उम्र लगभग तेरह साल थी और मुझे तीन महीने बाद हाई स्कूल की परीक्षा देनी थी। हाईस्कूल की परीक्षा मैंने पढ़कर नहीं रो-रोकर ही दिया था और यह सिलसिला एक लम्बी अवधि तक चला। खैर मैं भी बाबूजी के आशीर्वाद से
श्री हनुमान विद्या मंदिर बरांव के दसवीं के 96 छात्रों मे उन उतीर्ण छात्रों की पंक्ति में था जिनकी संख्या मात्र 6 थी।
1983 में मै कलकत्ता गया अपनी माँ के साथ तो चांडक परिवार के बेटों से मूलधन की थोड़ी बहुत भरपायी करा पाया।
बकौल शायर अल्लामा इकबाल,
“यूनान ओ मिस्र ओ रूमां सब मिट गये जहाँ से
अब तक मगर है बाकी नाम-ओ-निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जमाँ हमारा ”
राजबंशी शुक्ल के चार पुत्रियां और दो पुत्र हैं। जिसमें से एक पुत्री इस समय लखनऊ में रहती हैं,चंद्रप्रभा त्रिपाठी। यह मेरी छोटी बहन हैं। मुझसे बड़ी बहन भी साउथ सिटी लखनऊ में रहती थीं,पर उनका देहांत 2013 में हो गया है। बाकी दो बड़ी बहनें कमशः इलाहाबाद और कठकुइयां (देवरिया/कुशीनगर)मे थीं,जिनका काफी पहले देहांत हो चुका है। सभी का परिवार सकुशल,राजी-खुशी है।
बाबू जी की यादें ही हमारा संबल हैं।उनकी स्मृतियों को सादर प्रणाम और अनगिन वंदन और अभिनंदन।
रविशंकर शुक्ल
मूल निवास
ग्राम व पोस्ट-करायल शुक्ल
वाया गौरा जयनगर
जिला-देवरिया
पता
कृष्णायन,एम-2/67,
जवाहर विहार कालोनी,
रायबरेली-229010
मो.फोन नंबर
8707020053,
9450626706

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