साहित्य

पोपल गाथा

वीणा गुप्त

सीता जी की खोज में गए,
हनुमानजी ने लंका में,
विभीषण को पाया।
हालचाल पूछा जब पवन सुत ने,
तब विभीषण ने दुखड़ा सुनाया।

क्या बताएँ बंधु वर
हम हाल अपना।
रावण राज्य में ,
कैसा रहना,कैसा बसना?

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी
जिमि दसननि में जीभ बिचारी।

सच ही कहा विभीषण ने,
क्योंकि लंका में राक्षस थे,
सभी लंबदंत,सूर्पनख धारी।
और विभीषण बेचारा तो,
नाम का ही भीषण था।
यही थी उसकी लाचारी।

आज यही प्रश्न पूछा ,
हमारे मन ने हमसे,
कहो भाई ,कैसी कट रही है?
सच में जी रहे हो।
या ज़िंदगी को ढो रहे हो।
सचमुच हँसते हो ?
या रो रहे हो ?

प्रश्न पैना था
जले पर नमक छिड़क गया।
दुखती रग टच कर गया।
हम पहले से ही
जमाने के सताए थे।
बहुत चोट खाए थे।
अब अंतर ने भी,
कस कर तमाचा दिया।

संभल कर बोले,
विभीषणी दशा से तो ,
हालत हमारी,
कुछ अच्छी ही है।
संदर्भ तो वहीं हैं,
बदली परिस्थिति है।
तब त्रेता युग था।
अब कलियुगी बस्ती है।

दंत- नख धारी तो यहाँ भी,
एक से एक भरे पड़े हैं।
करेले हैं सब के सब,
नीम पर चढे़ हैं।
हाथी के दांँतोँ से ये,
जग जाहिर हैं।
शहद टपकाने में माहिर हैं,
आज की दुनिया की,
ये बहुत ही महान हस्ती हैं।
इंसानियत के सिवा यहाँ,
प्रिय बंधु मेरे!
हर चीज सस्ती है।

वैसे यहाँ ज्यादातर,
पोपले ही बसते हैं।
रुख हवा का
जानकर ही चलते हैं।
काटना तो चाहते हैं वे भी,
पर बेबसी के चलते,
नाकाम हो जाते हैं।
काटना छोड़ केवल ,
भौंकते ही रह जाते हैं।
जल में रहने के लिए
मगर मच्छों को,
मौके-बेमौके चाटने
लग जाते हैं।
पोपली आत्मीयता दर्शाते हैं।
हम खुद भी इसी श्रेणी में आते हैं।

इसीलिए तो भाई यहाँ
जी पा रहे हैं।
मरे पड़े हैं पूरी तरह,
लेकिन अभिनय जीने का
किए जा रहे हैं।
जरूरी है यह ढोंग
प्रवंचना निरीहता की,
वरना यहाँ तो ऐसे-ऐसे हैं।
जो तुम्हें कच्चा चबा जाएंगे।
तुम्हें खबर भी न होगी,
ये हज़म कर जाएंगे।

मरने पर तुम्हारे ये,
उत्सव मनाएंगे।
निमंत्रण तुम्हें भी पठाएंगे।
और तुम चूंकि पोपले हो,
कुछ भी न कर पाओगे।
उत्सव में जाओगे,
स्वांग धारोगे,
बधाइयां दोगे
तालियाँ बजाओगे।
महज़ दर्शक बने
जश्न अपनी बर्बादी का
देखते रह जाओगे।

क्या विभीषण बनोगे?
इतिहास दुहराओगे?
अरे विभीषण सा साहस
कहाँ से लाओगे?
औकात है क्या
सच बोलने की?
लात रावण की सह पाओगे।
और गर विभीषण बन भी गए,
तो यहाँ राम कहाँ पाओगे?
जो तुम्हें अभय दान देगा,
लंकेश बनाएगा।

आज का कलियुगी त्राता तो,
मदद से तुम्हारी लंका जीतेगा,
तुम्हें अज्ञातवास दे ,
वन पठाएगा।
निसंकोच खुद राज भोगेगा।
तुम भूमिगत हो जाओगे।
सच बोलने का इनाम पाओगे।
कोसोगे खुद को,पछताओगे।

इसीलिए भाई मेरे,
पोपले बने रहने में ही भलाई है।
झुकना ही सनातन सच्चाई है
दुनिया इस पोपली बैसाखी पर
ही चल रही है।
दांँतों के बीच जीभ बेचारी
तभी तो बच रही है।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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