
जब निराला ने कहा – “भारत के सिद्धान्त से यथार्थ विश्वकवि ये हैं – कबीर ,सूरदास और तुलसीदास
भारत का विश्ववाद एक प्रकार से चेतनवाद है , जिसमॆं अगणित सौरमंडल अपने सृष्टि-नियमों के चक्र से विवर्तित होते जा रहे हैं !सूर ने चेतन की यह क्रिया समझी इसीलिए सकट पग की बात की, अर्थात् स्थिर होकर क्रमश: चेतन-समाधि में मग्न होने की चेष्टा कर रहे हैं ! हर एक केन्द्र में वह चेतनस्वरूप विभु मौजूद है ! सूर ने कृष्ण के ही उज्ज्वल केन्द्र को ग्रहण किया ! तुलसी ने राम के केन्द्र को और कबीर ने बिना केन्द्र के केन्द्र को ! भारत के सिद्धान्त से यथार्थ विश्वकवि ये ही हैं , कबीर ,सूरदास और तुलसीदास , जैसे महाशक्ति के आधार-स्तंभ ! तुलसीदास भी उदर माँझ सुन अंडज राया , देख्यौ बहु ब्रह्मांड निकाया से अगणित विश्व का वर्णन करते हैं , वे जोर देकर कहते हैं कि > यह सब मैं निज नयनन देखा !भारत का विश्ववाद इस प्रकार का है ! भारत के विश्वकवि जड़ता की धूल पाठकों पर नहीं झोंकते ! वे ब्रह्मांडमय चेतन का अंजन उनकी आँखों में लगाते हैं।”
वाह, कितनी उत्कृष्ट सोच जैसे कैलास पर्वत पर ध्यानावस्तित शंकर के माथे पर झर-झर करती शीतल, मोक्षदायिनी, प्रवाहमयी गंगा। हर चेतनस्वरूप में विभु की व्यापकता है परखने की पारंगत दृष्टि की अपेक्षा है। दृष्टि से देखना नहीं है उस चेतस्वरूप का गहराई में डूबकर दर्शन करना है। दर्शन मे डूबी हृदय की भावना कलश उमड़ने की क्रिया में गदगद होकर अभिव्यक्ति में छलकने की प्रक्रिया में धारोष्ण दूग्ध विभु के चरणों में अर्पण करना चाहता है। सूर ने कृष्ण के वात्सल्य, शृंगार, भक्ति की त्रिवेणी पर अपनी अभिव्यक्ति की छलकन को अर्पित किया। तुलसी ने राम के चरणों में अपनी अभिव्यक्ति की खुशबू को समर्पित किया और कबीर तो अपने अक्खड़पन में निर्विकार और प्रेम को भाव के दुग्धधार से अवगाहन कराया। वास्तव में भारत का बोध कराने वाले सूर, तुलसी और कबीर ही हैं। महाशक्ति की रीढ़ एक चेतन स्वरूप जिसने कण- कण में विभु का दर्शन सुख प्राप्त किया है.. कबीर को तो सब जगह लाल ही लाल दीखता है औरअंत में वे भी लाल हो जाते हैं -लालीमेरे लाल की जित देखौ तित लाल लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल” जहाँ बूंद समुद्र में मिलता है बूंद नहीं रहजाता है समुद्र अपनी गोद में ऐसा चिपका लेता है कि बूंद समुद्र का भेद मिट जाता है.. तुलसी नै उसी व्यापकता का दर्शन किया है”सियाराम मय सब जग जानी करौं प्रणाम जोरि जुग पानी “सूर बेचारा तो अनत सुख को बड़ी गूढ़ता से देखा है समरसरता में एक अभेद दृष्टि हो जाती है ” हमारे प्रभु अवगुन चित ना धरौं/एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो/सो दुविधा पारस नहीं देखत कंचन करत खरो ” विश्व कवियों नै ऐसे विभु के यथार्थ का दर्शन अपनी प्रज्ञा चक्षु से किया है और निराला को दृढ़ विश्वास है कि ये विश्व कवि चैतन्यता के लिए अकिंचन बने रहते हैं जड़ता की धूल पाठकों की आँख में नहीं झोंकते हैं। वे ब्रह्मांडमय चेतन का अंजन उनकी आँखों में लगाते हैं।
हे महाप्राण, हम आपकी पुण्यतिथि पर कोटिश: नमन करते हैं
डॉ. विद्यासागर उपाध्याय




