
महाप्राज्ञ — यह केवल एक शब्द नहीं, यह आत्मा की पुकार है। इसमें वह दिव्य प्रकाश छिपा है जो मनुष्य को अंधकार से उठाकर अनंत उजियारे की ओर ले जाता है। यह वह अवस्था है जहाँ बुद्धि केवल सोचती नहीं, बल्कि हृदय के भीतर से देखना सीख जाती है। जहाँ ज्ञान अब पुस्तक का नहीं, अनुभव का बन जाता है। जहाँ मानव मन की सीमाओं से ऊपर उठकर यह अनुभव करता है कि *“मैं नहीं, सब मैं ही हूँ।”*
मनुष्य की चेतना एक यात्रा है, जो बाहर की दुनिया से भीतर की ओर और फिर उस अनंत तक जो सबमें व्याप्त है। इस यात्रा में “प्राज्ञ” वह दीपक है जो मार्ग दिखाता है। जब यह दीपक अपनी पूर्ण प्रखरता तक पहुँचता है, तब वह “महाप्राज्ञ” बन जाता है। यह वह विवेक है जो सभी द्वंद्वों से परे है, वह दृष्टि जो भेद नहीं देखती और वह समझ जो हर प्राणी में अपना ही स्वरूप पहचानती है — यही महाप्राज्ञ है।
यह ज्ञान का अंबार नहीं, ज्ञान की निर्मल धारा है, जो अहंकार, स्वार्थ और सीमाओं को बहा ले जाती है। यहाँ बुद्धि तर्क से नहीं, प्रेम से चलती है। यहाँ विचार का आधार अनुभव है और अनुभव का मूल आत्मा का प्रकाश है। साधक जब इस चेतना से जुड़ता है, तब उसे लगता है — *“सृष्टि का प्रत्येक अंश मुझमें बसता है और मैं प्रत्येक अंश में।”*
उपनिषदों में कहा है कि चेतना की पाँच सीढ़ियाँ होती हैं। पहले इंद्रियाँ बाहर की ओर दौड़ती हैं — यह बहिष्प्राज्ञ की अवस्था है। फिर मन भीतर देखता है — यह अंतःप्राज्ञ है। उसके बाद विवेक स्थिर हो जाता है — यह स्थितिप्राज्ञ है। फिर आती है महाप्राज्ञ — जब सीमाएँ मिट जाती हैं और मनुष्य पहली बार अनुभव करता है कि सृष्टि उसके भीतर है। उसके बाद आता है परमप्राज्ञ — जहाँ आत्मा पूर्णतः ब्रह्म में विलीन हो जाती है। महाप्राज्ञ इन दोनों अवस्थाओं के बीच वह द्वार है, जहाँ से आत्मा अनंत की दहलीज़ पर खड़ी होती है।
इस अवस्था में ‘मैं’ और ‘तू’ का भेद मिट जाता है। साधक जब किसी को देखता है, तो उसमें अपना ही रूप देखता है। यही ईशोपनिषद का सत्य है — *“जो सब प्राणियों में अपने आत्मा को और अपने आत्मा में सब प्राणियों को देखता है, वही जानता है।”* यह ज्ञान नहीं, प्रेम से भरी हुई, करुणा से ओतप्रोत अनुभूति है।
महाप्राज्ञ का अनुभव केवल ध्यान में नहीं, जीवन के प्रत्येक क्षण में होता है। ऐसा व्यक्ति जो भी करता है, उसमें प्रकाश होता है। उसका कर्म अब लाभ या हानि से नहीं, बल्कि लोककल्याण से प्रेरित होता है। उसका हृदय सबके लिए धड़कता है। उसकी मुस्कान में शांति और उसकी दृष्टि में करुणा होती है। महात्मा बुद्ध जी की करुणा, महावीर जी की अहिंसा, विवेकानंद जी की जागृति और अरविंद जी की दृष्टि — सब इसी महाप्राज्ञ के स्वर हैं।
ज्योतिष के अनुसार, जब गुरु का ज्ञान और सूर्य का तेज संगम करते हैं, तब मनुष्य में महाप्राज्ञ का प्रकाश प्रकट होता है। तब व्यक्ति केवल जानता नहीं, बल्कि सत्य, प्रेम और आत्मा के साथ जीता है। उसका जीवन एक चलती साधना बन जाता है, जहाँ हर क्षण ब्रह्म का उत्सव बनकर खिलता है।
महाप्राज्ञ वह अवस्था है जहाँ मन शांत हो जाता है, बुद्धि स्थिर हो जाती है और आत्मा अपनी पूर्ण ज्योति में जाग उठती है। वहाँ न कोई भय होता है, न कोई द्वंद्व — केवल गहरी शांति और अपार आनंद का अनुभव होता है, तब साधक कहता है —
*“अब मैं नहीं रहा, केवल वह है, जो सबमें है।”*
महाप्राज्ञ जीवन की वह अवस्था है, जहाँ ज्ञान, करुणा और कर्म एक साथ मिल जाते हैं। जहाँ बुद्धि, हृदय और आत्मा एक साथ गूँजते हैं। ऐसा व्यक्ति अब शब्दों में नहीं बोलता — उसकी मौजूदगी ही सब कुछ कह देती है। उसका जीवन खुद एक दीपक बन जाता है, जो दूसरों के जीवन को रोशन करता है।
यही महाप्राज्ञ की सुंदरता है — जब आत्मा जाग उठती है और ‘स्व’ और ‘सर्व’ का भेद मिट जाता है। जीवन खुद ब्रह्म की मधुर लय में बहने लगता है। वहाँ केवल मन नहीं, बल्कि चेतना अपनी बात मौन में, प्रकाश में और प्रेम में कहती है। चेतना की वह उजली ज्योति, जो हर दिल को प्रेम और सत्य के प्रकाश से भर देती है, यही महाप्राज्ञ है।
महाप्राज्ञ की महिमा को ईशोपनिषद के श्लोक 6 में इस प्रकार व्यक्त किया गया है —
*”य: सर्वेषु भूतेषु आत्मानं सर्वभूतानि चात्मनि पश्यति।*
*सर्वभूतानि चात्मनि पश्यति, स एव महात्मा।”*
अर्थात् जो व्यक्ति सभी प्राणियों में अपने आत्मा को और अपने आत्मा में सभी प्राणियों को देखता है, वही सच्चा महात्मा है।
अत: यह श्लोक महाप्राज्ञ की अवधारणा को स्पष्ट करता है, जहाँ व्यक्ति अपने आत्मा को समस्त सृष्टि में देखता है और सभी में अपने आत्मा का अनुभव करता है।
✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”




