साहित्य

मैं पांचाली

वीणा गुप्त

(1)
मैं पांचाली,
पांचाल नरेश द्रुपद की
राजकन्या।
यज्ञ से उद् भूत,
भगिनी धृष्टद्युम्न की,
सखी श्रीकृष्ण की।
प्राणप्रिया अर्जुन की।
भार्या पांडवों की।
कौरवकुल वधू।
पंच वीर पुत्रों की जननी,
महत् है परिचय मेरा।
पर सब कुछ होते हुए भी
मैं वंचिता हूँ।
वंचिता ,प्रवंचिता।
यही सही परिचय है मेरा।
प्रवंचना का इतिहास है
जीवन मेरा।
जिसका हर अध्याय विधाता ने
अपनी वज्र -कलम से उकेरा है।

(2)
आज मैं हस्तिनापुर त्याग,
स्वर्गारोहण के मार्ग पर
अग्रसर हूंँ पांडवों के साथ।
त्याग आए हैं हम ,
वह हस्तिनापुर,जो हमारे लिए
सदा ही मरीचिका रहा।
जिसे पाने के लिए हमने
कितने भटकाव,कितनी थकान,
कितनी पीड़ा, कितना अपमान,
आत्मीय जन बिछोह,
क्या कुछ नहीं सहा?

अब उसी परम काम्य
हस्तिनापुर को त्याग,
चली हूंँ सदेह स्वर्ग पाने
की आकांक्षा लिए।
यह भी मरीचिका है,
इस मार्ग का अंत भी
अनिश्चित है।
पर हम अभ्यस्त हैं,
आश्वस्त हैं।
जीवन भर का भटकाव
अब स्थिरता दे गया है।

(3)
कहाँ से प्रारंभ करूंँ?
जीवनगाथा अपनी।
जन्मते ही पिता द्रुपद को,
प्रतिकार- अनल में जलते पाया।
उनका ही प्रतिशोध,
मेरी शिराओं में रक्त बन आया।
मुझे अग्निस्नाता बना गया।
मैं श्यामा,सर्वांगसुंदरी ,
नील कुंदकली सी कमनीय,
मैं द्रौपदी ,साक्षात अनल बन गई।
पितृ इच्छा पूर्ति,
मात्र जीवन -ध्येय बन गई।

(4)

आज मेरा स्वयंवर है।
पर स्वयं वरण का अधिकार
कहाँ है मुझे? जो करेगा
पिता की अपेक्षा को साकार,
वही पहनेगा मेरी जयमाल।
चाहे हो सूतपुत्र कर्ण,
या दुर्योधन, दुश्शासन।
पर यहाँ मेरा सौभाग्य
क्षणभर को मुस्कराया।
मेरा काम्य पार्थ मुझे
स्वयंवर में जीत पाया।
घोर कंगाली में जीवन बिताता,
अर्जुन था मुझे स्वीकार।
पर शेष था अभी,
विधाता का वज्र प्रहार।
मेरा दुर्भाग्य मुझसे ,
दो पग आगे खड़ा था।
भविष्य को मेरे उसने
विद्रूपताओं से भरा था।

कुंती मांँ के कथन का
उनके धर्मनिष्ठ पुत्रों ने
जान बूझकर गलत अर्थ लगाया।
अधर्म युत अपनी,
घृणित कामना को,
धर्म की ओट में छिपाया।
मुझे अपने कुटिल शिकंजे में
कस लिया।
पार्थ में अनुरक्त मुझे,
अन्य पांडवों ने भी वर लिया।

(5)
काश! समझी होती,
मेरी पीड़ा किसी ने।
अन्य तो पुरुष थे,पाषाण हृदय।
पर मांँ कुंती ! तुम तो नारी थी न।
कैसे देखती रहीं,
नारी -सम्मान की बलि?
मर्यादा,भ्रातृ- एकता,
गुरुजन वचन -पालन के
मिथ्या आदर्शों के घेरों में घिरी,
मैं उस दिन सौ -सौ मौतें,
एक साथ मर गई थी।
मेरी चुप्पी सौ-सौ वज्र बन
मुझ पर ही गिर गई थी।

राजनीति जीती थी उस दिन
प्रणय हारा था।
स्वार्थ ने भावुकता से
किया किनारा था।
वैसे भी राजनीति की दृष्टि,
किसी की पीड़ा कहाँ देख पाती है।
उसकी सारी चतुराई,
सारी दूरदर्शिता,
केवल और केवल,
स्वार्थ और सत्ता ही
पहचान पाती है।

मैं द्रौपदी भी  इसी
राजनीति की बलि चढ़ गई।
एक की भार्या, पंचपति की
भार्या बन गई।
मुझे चिल्लाना चाहिए था जब,
तब मैं विषादलीना ,मौन बन गई।

(6)
और फिर तो प्रारंभ हो गया,
मेरे दुर्भाग्यों का अनवरत क्रम।
हस्तिनापुर से निर्वासित हो
खांडवप्रस्थ में रखा कदम।
अथक श्रम से उसे इंद्रप्रस्थ बनाया
राजसूय- यज्ञ करवाया।
सोचा  जीवन में शांति आई,
पर शांति यह पलभर भी
टिक न पाई।
भविष्य ने मुझ पर
दोष भरी उंगली उठाई।
दुर्योधन की अपराधी बनी

इंद्रप्रस्थ का राज प्रासाद,
मय के कला,कौशल का
दिव्य ,अनुपम उपहार था।
पारदर्शी भित्तियां थीं उसकी,
था स्फटिक- मणिमय प्रांगण ,
रजत- धवल ,निर्मल सरोवर थे।
चित्र सजीव ,भव्य ,मनोहर थे।
जल में थल,थल में जल का,
सबको होता था सहज  संभ्रम।
मय रचित राजभवन यह,
था छलना का मायावी दर्पण ।
मय रचित सभागार की
विचित्रता बताई, दुर्योधन को,
सतर्क  हो, चलने को कहा।
पर द्वेष- मात्सर्य उसका, इसे
उपहास समझ,तिलमिलाया।
अर्थ  का अनर्थ बनाया।
अपनी हीनता से ग्रस्त उसने,
मुझे प्रतिशोध का मोहरा बनाया।
मुझे महाभारत युद्ध का
कारण ठहराया।
कौन सी नई बात हुई थी?
सभी ने सारे विवादों की जड़
सदा नारी को ही है माना ।
यहां मुझे, मुझ द्रौपदी को
यह कलंक पड़ा उठाना।

(7)
पर  क्या यह विराम था?
नहीं , शीघ्र ही मध्य आया।
षड़यंत्र द्यूतक्रीडा़ का, रंग लाया।
पराजित पतियों ने मुझे ,
वस्तु मान दाँव पर लगाया।
गुरु जनों के समक्ष, अपमानित
मरणान्तक वेदना से पीड़ित,
प्रतिशोध ज्वाल में दग्ध,
अब मैं तन्वंगी श्यामा नहीं,
साक्षात मृत्यु थी।
मेरी सुचिक्कण, उन्मुक्त केश राशि,
नागिन बन फुंफकार रही थी।
काल थी मैं उनके लिए,
जिन्होंने मेरी अस्मिता हरी थी।

और अब, तेरह वर्ष का वनवास,
एक वर्ष का अज्ञात वास भोग ,
कुरूक्षेत्र युद्ध की विभीषिका से
त्रस्त ,आहत,संतप्त।
विजयश्री का उल्लास
मना भी न पाई,
कि अश्वत्थामा के रूप में
नियति मेरी कोख उजाड़ने,
रात के अंधेरे में,
दबे पाँव चली आई।
मेरे पाँच वीर युवा पुत्र
इसकी बलि चढ़ गए।
रुदन से मेरे,
धरती गगन हिल गए।
पर मेरा अंतहीन विलाप,
क्या लौटा देगा मेरे पुत्र?
मेरी ममता, मेरा वात्सल्य?

गए हैं माधव और पांडव,
मेरे अपराधी को पकड़ लाए हैं।
मेरे चरणों में पड़ा अश्वत्थामा,
क्षमायाचना कर रहा है।
भीम उसके शिरोच्छेदन को,
खड्ग लिए खड़ा है।
धर्मराज सदा की तरह
धर्म- विवेचन पर अड़ा है।
कृष्ण मुझे धैर्य सिखा रहा है।
पार्थ, नकुल, सहदेव का
धैर्य , मेरा इंगित चाह रहा है।
(8)

मैं हतभागिनी,
जो अपना जीवन
स्वेच्छया न जी सकी।
इस नराधम के जीवन पर
क्या अधिकार जताऊंँ?
गुरु -पुत्र है यह, कैसे भुलाऊंँ?
गुरु -पत्नी कृपी के वात्सल्य का
एक मात्र अवलंब।

मैं पुत्रहीना ,क्या उनकी
पीड़ा को नहीं जानूंँगी?
अपने आंँसू क्यों मैं
अभागिन जननी,
उनके नेत्रों से ढालूंँगी?
क्या इसके प्राणों का हरण
करेगा मेरी व्यथा का शमन?
छोड़ दूंँ इसे,जिए यह,
ढोता रहे चिरकाल तक,
अपना मरण तुल्य,
अपराध बोध भरा,
अभिशापित जीवन।

(9)
चिर व्यथा मेरी
शब्दातीत है।
हर स्नेहिल स्पर्श,
मेरे मन को अंदर तक
आहत कर जाता है।
व्याकुलता का सागर
रह -रह कर  उर में
पछाड़ें खाता है।
व्यथा अंतहीन मेरी
बढ़ती ही  जाती है।
बरस -बरस कर
सूख गए हैं नेत्र।
सुधि लाड़लों की।
हर पल तड़पाती है।
मैं पाषाणी हो चुकी हूंँ,
सर्वस्व खो चुकी हूंँ।
वंचिता हूंँ,पूर्ण वंचिता।

अब मुझे एकांत चाहिए,
हस्तिनापुर का यह
मणिमय प्रासाद,
हमें अब काम्य नहीं है।
हम इससे दूर चले
जाना चाहते हैं।
अतीत को झुठलाना चाहते हैं।
चले जाना चाहते हैं।
किसी अनदेखे स्वर्ग के संधान में
लेकिन स्वर्ग है कहांँ?
कौन सा होगा लोक वह,
चिर विराम पाएगी
मेरी पीड़ा जहांँ।

(10)

सखे कृष्ण!
मेरे ज्ञान- चक्षु खोलो।
इच्छा -नियंत्रण ही स्वर्ग प्राप्ति है।
ऐसा ही कहा था न ,तुमने पार्थ से।
मुझे भी फलरहित कर्म का,
मर्म समझा दो।
मुझ ज्ञान- हीना के लिए भी,
फिर अपनी गीता गा दो।
मेरे लिए, मुझ पांचाली के लिए,
कृतज्ञा होगी, यह सखी तुम्हारी,
अपने इष्ट के प्रति समर्पिता,
तुम्हारी यह पांचाली ।
कृष्णा तुम्हारी
शरण है तुम्हारी।
रखना लाज हमारी।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली।

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