
नारायण के पूर्णावतार श्रीकृष्ण शरीर धारण को उनकी अद्भुत लीलाओं और दार्शनिक कथनों के महात्म्य के कारण कृष्णं वंदे जगद्गुरुम कहकर शास्त्रों और पुराणों ने उनको आदिगुरु के रूप में स्वीकार किया है।उनका प्रत्येक कार्य न केवल शिक्षाप्रद अपितु संसार के लिए जीवंत प्रमाण और प्रेरणा है।इन्हीं में एक कार्य जोकि उन्होंने अपने बाल्यकाल में ही कौतुक कर दिखाया है,वह है इंद्र के दर्प का दमन और मानवों द्वारा अपने विकास के साथ ही साथ प्रकृति के सहअस्तित्व को अंगीकृत करते हुए उनकी महत्ता को मुक्तकंठ से स्वीकार करना।कहना गलत नहीं होगा कि गोवर्धन पूजा विश्व इतिहास में सर्वप्रथम की गई प्रकृति पूजा का ऐसा प्रमाण है।जिसके अनुसरण से संसार का कायाकल्प संभव है।
श्रीमद्भागवत महापुराण (दशम स्कंध, अध्याय 24-27) में गोवर्धन लीला का विस्तृत वर्णन मिलता है।कृष्ण का उद्देश्य इन्द्र के अहंकार को तोड़ना और ब्रजवासियों को कर्मप्रधान जीवन की प्रेरणा देना था।
“देवो वा इन्द्रो वा न इत्येव मन्ये
नृणां स्वधर्मस्थपथः प्रभुः स्यात्।”
(भागवत 10.24.6)
अर्थात“हे गोपगण! मैं यह नहीं मानता कि केवल इन्द्र ही वर्षा के स्वामी हैं।
मनुष्य का स्वधर्म, उसका कर्म ही उसका देवता है।”कृष्ण का यह वाक्य भारतीय चिंतन का मूल प्रतिपादन करता है —
“कर्म ही पूजा है, प्रकृति ही देवता है।”
भागवत में वर्णन है कि जब ब्रजवासी इन्द्र यज्ञ की तैयारी कर रहे थे,
कृष्ण ने कहा —
“गोवर्धनं पूजयध्वं गवां च हितकाम्यया।
अन्नाद्यैः सर्वभूतानां तृप्तिर्भवति नान्यथा॥”
(भागवत 10.24.26)
अर्थात “गायों के हितार्थ तुम गोवर्धन पर्वत की पूजा करो।अन्न और अन्न से उत्पन्न पदार्थों से सब प्राणियों की तृप्ति होती है।”
यहाँ अन्नकूट का मूल स्रोत निहित है —
भोजन और अन्न की पवित्रता को पूजा का अंग मानना।गोवर्धन पूजा में अन्नकूट, गौपूजन और पर्वत का प्रतीक पूजन इसी वैदिक भावना का विस्तार है।गोवर्धन पर्वत का प्रतीक — प्रकृति का जीवंत स्वरूप है।श्रीमद्भागवत में कहा गया है —
जब ब्रजवासी गोवर्धन की पूजा करने लगे, तब भगवान स्वयं पर्वत के रूप में प्रकट हुए —
“गोवर्धन इति ख्यातः साक्षात् हरिरभूद् ध्रुवम्।”
(भागवत 10.24.35)
अर्थात “वह गोवर्धन पर्वत वास्तव में स्वयं श्रीहरि (कृष्ण) का रूप है।”यह श्लोक भारतीय दर्शन के उस गूढ़ सिद्धांत को प्रकट करता है कि —
ईश्वर और प्रकृति भिन्न नहीं हैं।
जिसमें जीवन, संवेदना और सहयोग की भावना है — वही हरि है।गोवर्धन पर्वत का पूजन, वस्तुतः प्रकृति में ईश्वर के दर्शन की परंपरा है।
इसी भाव को लोक में कहा गया —
“गोवर्धन धर धरयो जी, नन्दलाल ने खेल रचायो जी।”
जब इन्द्र को यह ज्ञात हुआ कि ब्रजवासी अब उनकी पूजा नहीं कर रहे,
उन्होंने क्रोधवश सात दिन तक मूसलधार वर्षा बरसाई।
तब श्रीकृष्ण ने अपनी कनिष्ठा अँगुली पर पर्वत उठाकर ब्रजवासियों की रक्षा की।
“एकेनाङ्गुलिना शौरिः धराम् अद्रिं धृतो यथा।”
(भागवत 10.25.19)
“शौरि (कृष्ण) ने अपनी एक अँगुली से गोवर्धन पर्वत को धारण किया।”
यह दृश्य केवल चमत्कार नहीं, बल्कि अहंकार पर विनम्रता की विजय का रूपक है।
शक्ति का प्रयोग दूसरों के विनाश हेतु नहीं, सहयोग और संरक्षण हेतु होना चाहिए — यही धर्म है।
हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व, अध्याय 19) में कहा गया है —
“गोवर्धनः पूजनीयः सर्वदेवैः सहर्षयः।
गवां हिताय लोकानां चिरं तिष्ठतु मे मनः॥”
अर्थात“गोवर्धन पर्वत देवताओं और ऋषियों द्वारा पूजनीय है;
वह गायों और लोकों के हित में चिरकाल तक स्थित रहे।”
विष्णु पुराण (पंचम अंश, अध्याय 11) में वर्णन है कि
इन्द्र को पश्चात्ताप हुआ और उन्होंने कहा —
“नाहं देवो न चान्ये वा यज्ञेन तुष्टिं विन्दति।
तुष्टो हरिर्हि यज्ञार्थं सर्वेषां फलदो हरिः॥”
अर्थात “न मैं देव हूँ, न अन्य कोई;
यज्ञ का फल तो केवल वही देता है जो सबका पालनहार — हरि है।”
यहाँ कृष्ण का दर्शन केवल भक्ति का नहीं, विवेक का है।उन्होंने बताया कि यज्ञ और पूजा का लक्ष्य प्रकृति, जीव और मानव के बीच संतुलन होना चाहिए।
गोवर्धन पूजा पर्यावरण और ग्राम जीवन का उत्सव है,भारतीय समाज के ग्राम्य-पर्यावरणीय जीवनदर्शन का जीवंत प्रतीक है।यह पर्व हमें बताता है कि-
“धरती, गाय, अन्न, जल और वृक्ष — सभी में दिव्यता है।”
इसलिए ब्रज में आज भी लोग गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करते हैं,
गौपूजन और अन्नकूट के माध्यम से प्रकृति को धन्यवाद देते हैं।
यह परंपरा भारत की उस मूल चेतना का परिचायक है
जहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ केवल नारा नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है।
आज जब विश्व जलवायु परिवर्तन और संसाधन संकट से जूझ रहा है,
तब गोवर्धन पूजा का संदेश अत्यंत प्रासंगिक है —
“अन्नाद् भवन्ति भूतानि, पर्जन्याद् अन्नसम्भवः।”
(गीता 3.14)
अर्थात“अन्न से प्राणियों का पोषण होता है और अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है।”
कृष्ण का गोवर्धन उपदेश इसी अन्न और वर्षा चक्र की स्थायित्वपूर्ण समझ का आधार है।
यह सिखाता है कि अन्न का सम्मान ही पर्यावरण की रक्षा है।
गोवर्धन पूजा : श्रद्धा से आगे, चेतना का पर्व है।यह केवल परंपरा नहीं, बल्कि
कृष्ण का पर्यावरण-दर्शन,कृषक जीवन का उत्सव,और अहंकार के विरुद्ध विनम्रता का संदेश है।यह पर्व कहता है —
“जहाँ गो, गोवर्धन और गोविन्द की भावना है,
वहीं सच्चा धर्म, संस्कृति और मानवता है।”
आज जब मानवता विकास के नाम पर प्रकृति से विमुख हो रही है,
तब आवश्यक है कि हम श्रीकृष्ण के इस उपदेश को पुनः आत्मसात करें —
“न स्वार्थाय न कामाय न लोके न परत्र च।
अन्नदानं परमं दानं धर्मस्य परमं फलम्॥”
गोवर्धन पूजा का यही सार है —
प्रकृति ही देवता है, अन्न ही यज्ञ है, और सेवा ही सच्चा धर्म है।




