
अँधियारों को हँसते देखा,
करती रुदन उजाली देखी।
आज बदलते युग की हमने,
ये कैसी दीवाली देखी॥
दीपक एक बलाएँ सौ-सौ,
तूफानों का साया देखा,
अट्टहास नफरत का भारी,
प्यार बहुत घबराया देखा,
अहंकार के मद में माते,
लड़ते लोटा – थाली देखी।
आज बदलते युग की हमने,
ये कैसी दीवाली देखी॥
भाई की भाई से अनबन,
पिता-पुत्र में दूरी…….देखी,
पति-पत्नी के बीच वहम की,
नाच रही इक छूरी देखी,
दिन को कहीं सिसकते देखा,
कहीं रात मतवाली देखी।
आज बदलते युग की हमने,
ये कैसी दीवाली देखी॥
अधनंगे वस्त्रों में नर्तन,
करते युवक युवतिया देखी,
दारू के दुर्गन्ध में डूबी,
कइयो आज बस्तियाँ देखी,
दुख में बहती नदियाँ देखी,
आनंदित कुछ नाली देखी।
आज बदलते युग की हमने,
ये कैसी दीवाली देखी।।
बारूदी विस्फोट कहीं था,
सुलग रही मानवता देखी,
सरेआम कुछ चौराहों पर,
दौड़ रही दानवता देखी,
‘लाल’सजीले जनगणमन की,
बिखरी-बिखरी लाली देखी।
आज बदलते युग की हमने,
ये कैसी दीवाली देखी।।
रचना -लालबहादुर चौरसिया ‘लाल’
आजमगढ़,9452088890




