
श्लोक:-
“दीपो भासयते लोकं आत्मदीपः स्वयं भव।”
-स्कन्द पुराण, दीपमाहात्म्य (अध्याय ३)
अर्थात, बाहरी दीप तो संसार को प्रकाशित करता है, परंतु जो स्वयं आत्मदीप बन जाता है, वही सच्चा साधक है।
यह श्लोक स्कन्द पुराण के दीपमाहात्म्य (अध्याय ३) से लिया गया है, जहाँ दीपदान को केवल बाह्य कर्म नहीं, बल्कि आंतरिक साधना बताया गया है। वहाँ कहा गया है कि जो व्यक्ति ज्ञान के दीप से अपने हृदय को आलोकित करता है, वही सच्चे अर्थों में ईश्वर का भक्त है। दीपदान का तात्पर्य मात्र घी और रुई से बना दीप जलाना नहीं, बल्कि अपने भीतर के अंधकार यानि अज्ञान, आलस्य और मोह को जलाकर नष्ट करना है।
अठारह महापुराणों में प्रमुख स्कन्द पुराण में धर्म, ज्ञान और लोककल्याण से संबंधित विविध उपदेशों के साथ-साथ दीपदान के आध्यात्मिक महत्त्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस श्लोक में ‘दीप’ केवल बाहरी प्रकाश का प्रतीक नहीं, बल्कि चेतना, ज्ञान और आत्मबोध का प्रतीक है। यह संदेश देता है कि बाहरी दीप संसार को प्रकाशित करता है, परंतु जो साधक स्वयं अपने भीतर आत्मदीप प्रज्वलित कर लेता है, वही सच्चे अर्थों में प्रकाशित आत्मा कहलाता है। यही दीपमाहात्म्य का सार है कि दीपोत्सव केवल उत्सव नहीं, बल्कि आत्मज्योति जगाने की साधना है, जहाँ प्रत्येक दीपक अंतःकरण के अंधकार को मिटाने का प्रतीक बन जाता है।
यह श्लोक केवल दीपदान का आह्वान नहीं, बल्कि आत्मज्योति की साधना का उद्घोष है। जब अंधकार छा जाता है, तब दीपक की छोटी-सी लौ सम्पूर्ण वातावरण को प्रकाशित कर देती है। यही दीप मानव-जीवन का प्रतीक है। यह छोटा होते हुए भी जगत् को आलोकित करने की क्षमता रखता है। इसका गूढ़ संदेश यह है कि दूसरों को प्रकाश देने के साथ-साथ मनुष्य को अपने भीतर भी दीप प्रज्वलित करना चाहिए, ताकि वह स्वयं भी उस प्रकाश में जी सके, न कि केवल दूसरों के लिए जलता रहे।
*“दीपो भासयते लोकं”* इसका अर्थ है कि दीपक अपने प्रकाश से संसार को आलोकित करता है। यह बाह्य क्रिया भौतिक जगत की दृश्य ज्योति का प्रतीक है, जो अंधकार को दूर कर दृश्यता प्रदान करती है। जैसे रात्रि में दीपक के प्रकाश से मार्ग स्पष्ट होता है, वैसे ही यह दीप अज्ञान के अंधकार में मार्गदर्शन का प्रतीक बनता है। यह हमें यह सिखाता है कि ज्ञान, सेवा और सद्कर्मों के दीप से ही समाज में प्रकाश फैलाया जा सकता है, क्योंकि बाह्य दीप केवल आलोक देता है, पर उसका उद्देश्य भीतर छिपे प्रकाश को जगाना है।
*“आत्मदीपत्व”* का अर्थ है कि अपने भीतर स्थित ज्ञान-ज्योति को पहचानना और उसी से जीवन का मार्ग आलोकित करना। यह केवल आत्मनिर्भरता नहीं, बल्कि आत्मचेतना की वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति बाहरी प्रकाश या मान्यता पर निर्भर नहीं रहता। जैसे सूर्य स्वयं प्रकाशमान होकर जगत को आलोकित करता है, वैसे ही आत्मदीप व्यक्ति अपने कर्म, विचार और करुणा से स्वयं प्रकाशित होता है। उसका आलोक भीतर से फूटता है, इसलिए वह स्थायी और अविनाशी होता है। यही आत्मदीपत्व उस शाश्वत ज्योति का प्रतीक है, जो व्यास के ज्ञान में, बुद्ध के ध्यान में और गांधी के सत्य में निरंतर प्रज्वलित रही है।
*“स्वयं भव”* का भावार्थ यह है कि व्यक्ति को स्वयं अपने भीतर का दीप प्रज्वलित करना चाहिए। जब कोई मनुष्य आत्मदीप बन जाता है, तो वह न केवल अपने भीतर के अंधकार को दूर करता है, बल्कि अपने चारों ओर के अंधकार यानि अज्ञान, मोह और अनैतिकता को भी मिटा देता है। उसका जीवन दूसरों के लिए मार्गदर्शक और प्रेरणास्त्रोत बन जाता है। ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व स्वयं दीपोत्सव के समान होता है, जहाँ हर क्षण में ज्ञान, करुणा और शांति की ज्योति फैलती है। उसके शब्द सत्य और प्रामाणिक होते हैं, उसके कर्म दूसरों को आलोकित करते हैं और वह स्वयं उस प्रकाश में स्थिर एवं निर्भय रहता है।
उपनिषदों ने इसी भाव को व्यक्त करते हुए कहा — *“तमेव भान्तमनुभाति सर्वम्”*, अर्थात वही आत्मा प्रकाशमान है, जिससे सब कुछ प्रकाशित होता है। बुद्ध ने भी कहा — *“अत्त दीपो भव”*, अर्थात “स्वयं अपने दीप बनो।” ये दोनों वचन एक ही चेतना की दो अभिव्यक्तियाँ हैं कि आत्मप्रकाश के बिना बाह्य प्रकाश अधूरा है। जब भीतर अंधकार है, तब हजार दीपक भी मार्ग नहीं दिखा सकते; पर जब भीतर ज्योति जाग उठे, तब बिना दीप के भी मार्ग प्रकाशित हो जाता है।
आधुनिक जीवन में यह श्लोक आत्मविकास का मूलमंत्र है। आज जब मनुष्य बाहरी उपलब्धियों के प्रकाश में जी रहा है, तब उसे अपने भीतर झाँकने की आवश्यकता है। आत्मदीप बनने का अर्थ है कि अपने विवेक को जगाना, अपने कर्म को सच्चे उद्देश्य से जोड़ना और अपने विचारों को प्रकाशमय बनाना। तभी जीवन की दिशा स्पष्ट होती है और निर्णयों में स्थिरता आती है।
दीप से दीप जलाना केवल सामाजिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक कर्तव्य भी है। जैसे एक दीप जलकर दूसरे को प्रज्वलित करता है, वैसे ही आत्मदीप व्यक्ति अपने स्पर्श से दूसरों के भीतर की ज्योति को भी जाग्रत कर देता है। उसका जीवन उपदेश नहीं देता, उदाहरण देता है। यही दीपदान का सर्वोच्च स्वरूप है, जब व्यक्ति स्वयं प्रकाश बनकर दूसरों के लिए मार्ग बन जाए।
इस श्लोक का भाव यह नहीं कि संसार का दीप त्याग दो, बल्कि यह कि उस दीप की तरह बनो जो बिना दिखावे के जलता है, दूसरों को प्रकाश देता है और स्वयं अपने कर्तव्य में तल्लीन रहता है। आत्मदीप व्यक्ति अपने भीतर के तम को जीतता है यानि काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की कालिमा को मिटाकर सत्व, शांति और ज्ञान का आलोक फैलाता है। यही आत्मदीपत्व की साधना है।
अंतः *“दीपो भासयते लोकं, आत्मदीपः स्वयं भव”* केवल उपदेश नहीं, बल्कि सनातन जीवन-दर्शन का सार है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि जगत् में प्रकाश फैलाने से पहले अपने भीतर का दीप जलाना आवश्यक है। जब मनुष्य का अंतःकरण आलोकित होता है, तभी समाज भी प्रकाशित होता है। दीपोत्सव तभी पूर्ण होता है, जब प्रत्येक हृदय में आत्मदीप जलता है; वही अमर ज्योति है, जो न कभी बुझती है, न मंद पड़ती है; वह आत्मा का अनन्त और अविनाशी प्रकाश है।
✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”




