साहित्य

सभ्यनामा

वीणा गुप्त

जी हाँ,मैं सभ्य हूँ,
मैं पूर्ण सभ्य हूँ,
सम्पूर्ण सभ्य हूँ।

कुछ कहा आपने?
क्या बताऊँ?
सभ्य होने का प्रमाण दिखाऊंँ।
अजी जनाब!
हाथ कंगन को आरसी क्या?
पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या?

मैं महानगर में रहता हूँ,
रोज नहाता हूँ।
मंदिर जाता हूँ।
जाने -अनजाने हुए पापों को,
भगवान से शेयर कर आता हूँ।
हर मंगल को व्रत रखता हूँ,
इक्कीस का गुलदाना,
बतौर प्रसाद चढ़ाता हूँ।
मैं पूरा सभ्य हूँ।

मेरे पास बड़ी-बड़ी डिग्रियांँ हैं।
ऊँची कुर्सी है।
तगड़ा बैंक बैलैंस है।
बड़ा सा मकान है।
मैं फाइव स्टार में खाता हूँ,
मैं हॉलीवुड चर्चाता हूँ।
हिंदी से है परहेज मुझे,
मैं हिंगलिश में बतियाता हूँ।
मैं कितना सभ्य हूँ।

मैं ऊँची बातें करता हूँ।
निशाने पर सबको धरता हूँ,
मैं जोड़- तोड़ में माहिर हूँ,
मैं शांतिप्रिय जग जाहिर हूंँ।
मैं मसीहा हूँ अपराधों का,
खुद उघड़ा-उघड़ा फिरता,
समर्थक मगर नकाबों का।
मैं सचमुच सभ्य हूँ।

मैं हड़तालें करवाता हूँ,
मैं बस्तियाँ फुंँकवाता हूं,
हर शांति प्रदर्शन में मैं ही,
पहला पत्थर चलवाता हूँ।
मीडिया मेरी जेब में है,
कानून मुझसे घबराता है।
हर छोटा-बड़ा ,खरा खोटा
मुझे ही शीश नवाता है।
क्योंकि मैं सभ्य हूँ।

मैं प्रबल देशप्रेमी हूँ,
मैं गांधी की जय गाता हूँ,
वंदे मातरम्-वंदेमातरम्,
ऊँचे सुर में चिल्लाता हूँ।
मैं राष्ट्रीय आय बढ़ाता हूँ,
भ्रष्टाचार का ग्राफ मैं ही,
चरम शीर्ष पर पहुँचाता हूँ।
हर फील्ड में मुनाफा कमाता हूँ,
मैं काग़ज पर बाग उगाता हूँ,
पंचवर्षीय योजनाएँ डुबाता हूँ।
मैं कितना सभ्य हूँ।

हर सड़क पर खुदे हुए गढ्ढे,
हर मुद्दे के उड़ते परखच्चे,
राजनीति की हर कालिख,
मेरी ही तो पहचान है।
मेरे जैसों के ही कारण,
मेरा देश महान है।
मैं टोटल सभ्य हूँ।

मैं स्थितप्रज्ञ हूँ गीता का,
समदर्शी कहलाता हूँ।
सुख -दुख दोनों को ही मैं,
शांत भाव से सह जाता हूँ।
मैं ऊँच -नीच को न जानूं,
मैं धर्म -मजहब न पहचानूं,
मुझे अपने- पराए का भेद नहीं,
किसी के जीने- मरने का,
मुझे रंगमात्र भी खेद नहीं।
मैं भाईचारा निभाता हूँ,
अंधों से रेवड़ी बंँटवाता हूँ,
मैं परम सभ्य हूँ।

कुछ कहा श्रीमान्?
यह सभ्यता नहीं है।
जी,मैं जानता हूँ,
आप जो कह रहे हैं,
मैं भी वही मानता हूँ।
पर क्या करूँ,
आज समीकरण बदल गए हैं,
संस्कृति,मूल्य,मानवता,
सब दिवंगत हुए हैं।

मुझे तो बंधुवर,
वर्तमान में जीना है।
आदर्शों का मिक्सचर ,
मुझे नहीं पीना है,
इससे तबियत बिगड़ जाती है।
इससे जाने कैसी- कैसी,
पिछड़ेपन की बू आती है।
मुझे तो स्वस्थ रहना है,
इसलिए तो विषपायी बना हूँ,
हर हालात में ठूंठ सा तना हूँ।

नहीं जंची आपको मेरी बात,
मर्ज़ी आपकी है जनाब,
मेरी भला क्या औकात?
मुझे माफ़ कीजिए,
तकाजे पर सभ्यता के,
ध्यान दीजिए।
आप भी सभ्य हैं,
मुझे भी सभ्य रहने दीजिए

जी, मैं सभ्य हूँ
पूर्ण सभ्य हूँ।
सम्पूर्ण सभ्य हूँ।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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