साहित्य

शरशय्या

वीणा गुप्त

हो चुका था
आज का युद्ध विराम।
प्रचंड पराक्रम,
अद्भुत रणकौशल का,
अप्रतिम प्रदर्शन कर,
भीष्म पितामह शायित थे
वीरोचित शरशय्या पर।

जीवन भर की असंतुष्टि,
समस्त वेदना उनकी
आज आश्वस्त हो पाई थी।
उनकी विशद निर्मल चेतना
पाकर निर्बन्ध मुक्ति मार्ग,
आज सचमुच मुस्कराई थी।

शरशय्या यह
उन्हें आज पुष्प सम कोमल,
माँ गंगा के स्नेहिल स्पर्श सी
शीतल लग रही थी।
आज उनकी चिरव्यथा,
उनकी क्रूर नियति,
उनसे सदा- सर्वदा के लिए
किनारा कर रही थी।

शांत ,धीर , गंभीर मना
पितामह सोच रहे थे,
इस युद्ध के विषय में।
जिसकी क्षति पूर्ति
असंभव थी युगों-युगों तक।
और आज का युद्ध तो
कितना भयावह था।
दुर्योधन के व्यंग्य बाणों से
आहत भीष्म,आज
साक्षात महाकाल बन आए थे।
रण क्षेत्र में मचा था तांडव,

त्राहि-त्राहि के स्वर
धरती से अंबर तक छाए थे।
देख यह  विकरालता ,विभीषिका,
स्वयं श्रीकृष्ण भूल प्रण अपना,
सारथ्य छोड़ अर्जुन का,
कुपित नेत्र लिए ,चक्र उठा,
रणक्षेत्र में धाए थे।

पितामह की आक्रामकता का
निदान ढूंढते,धर्मनिष्ठ पांडव,
अधर्म पर उतर आए थे।
नपुंसक शिखंडी को बना ढाल,
पितामह को निरस्त्र कर पाए थे।
और फिर निहत्थे भीष्म पर,
शिखंडी समेत सभी
पांडव महारथियों ने
अनगिन बाण बरसाए थे।
बिंध गया था बाणों से
भीष्म का जर्जर तन।
विनाश कगार पर देख
कुरूवंश को,
भर आया था उनका
विह्वल मन।

और कुरूक्षेत्र के आसमान में,
अस्ताचलगामी सूर्य के साथ ही,
अवसान पर था हस्तिनापुर का
यह देदीप्यमान सूर्य।
पूजनीय तेजस्वी पितामह।

शरशय्या ही अब उनकी नियति थी।
इच्छा मृत्यु का वरदान पाए,
सूर्योदय की बाट जोहते,
पितामह की अब
यही एकमात्र गति थी।

हस्तिनापुर के प्रति
उनकी निष्ठा का,
उनके सर्वस्व त्याग का,
उनके कर्त्तव्य -निर्वाह का
कितना निठुर ,व्यंग्य भरा
उपहार थी यह शरशय्या,
जो दिया था उनके ही
लाड़ले आत्मजों ने उन्हें।

आहत तन, शिथिल मन,
पितामह के‌ समक्ष
तिल रहीं थीं स्मृतियांँ
अतीत की, सजीव सी।
हां, यह शरशय्या ही तो
उनके अभिशप्त जीवन की,
कटु सच्चाई थी।
उनके बचपन,कैशौर्य,
यौवन और वार्धक्य का
हर पल इसी पर तो बीता था।

मातृ -स्नेह से वंचित बचपन,
पिता की कामेच्छा पूर्ति हेतु,
स्वेच्छया बलि चढ़ा यौवन,
जीवन- सौंदर्य को बिसार,
प्रवंचिता,परित्यक्ता अंबा की,
प्रणय -याचना का कर तिरस्कार,
विरूपताओं से समझौता कर,
अंगारों पर लोटते,अंर्तद्वन्दों से जूझते,
विवेकी भीष्म,कितने एकाकी,
कितने संतप्त,अतृप्त थे।

विवशता के वृश्चिक,
हर पल दे रहे थे दंश।
मौन होना पड़ा
उन पलों में उन्हें
जब  मुखर होना चाहिए था
उन्हें निशंक।
जब धधक रहा था
ज्वालामुखी अंतर में उनके,
सागर हाहाकार का
खा रहा था पछाड़ें अपार।
बैठे रहे पितामह,मूक,
बने वेदना साकार।

आँखें मींच लीं थीं उस समय ,
जब धूर्त शकुनि ढकेल रहा था ।
हस्तिनापुर के वर्तमान
और आगत को
पतन के गर्त में।
नहीं कर पाए वे वर्जना
अंधे सम्राट के अंधे पुत्र मोह की।
नहीं कर पाए ताड़ना,
धार्तराष्ट्रों के मदांध दंभ की।
नहीं दे पाए सांत्वना,
पतिहीना कुंती को।
अबोध पितृविहीन
पांडुपुत्रों को।

विदुर की नीति के प्रशंसक,
श्रीकृष्ण के संधि वचन के
पूर्ण समर्थक।
हस्तिनापुर के सर्वेसर्वा ,
महिमा मंडित भीष्म।
लाचार हो देखते रहे ,
पिशाची अट्टहास करती
अनीतियों को।
लाक्षागृह दाह को,
द्यूतक्रीडा़ के षड़यंत्र को,
दुःशासन और कर्ण की
वाचालता को।
दुर्योधन की निर्लज्जता को।
पांडवों के परास्त,
लुटे वीरत्व को।

सुनते रहे बधिर सम,
पौत्रवधू द्रुपदसुता की
करुण कातर पुकार।
सहते रहे
उसके पैने प्रश्नों की
तीखी बौछार।
उसके आर्तनाद में,
सैंकडों श्राप बन फूटती,
कुरूवंश के प्रति धिक्कार।

ढोते रहे निस्सार जीवन का
असह्य दुर्वह भार।
वेदना व्यथा अपार।
द्रोण और कृपाचार्य सम,
परिचारक नहीं थे भीष्म।
वे थे हस्तिनापुर के गौरव,
कंपित था आर्यावर्त
जिनके समक्ष।
फिर क्यों थे भीष्म लाचार?
कटु यथार्थ तो यही था,
कि खाए बैठे थे
मनस्वी पितामह,
अपने ही मन से हार।

लेकिन आज जो
शरशय्या  पाई है
पितामह ने,
वह करेगी उनका उद्धार।
करेगी दिशानिर्देश,
भविष्य का ,
कहेगी सबसे पुकार,
अन्याय को सहना,
वक्त पर चुप रहना,
पलायन है, कायरता है।
कर्त्तव्य है उस समय
करना प्रतिकार ।
निरंकुश दंभ का,
जिससे न हो पोषित,
कोई अहंकार,अतिचार।
कोई अध्याय न जुड़े,
रक्तरंजित इस महाभारत का
मानवता के इतिहास में।
गीता- निर्दिष्ट पथ पर ,
गतिमय हो संसार।
विनाश से ही मिलता है,
नव सृजन उपहार।
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वीणा गुप्त
नई दिल्ली।

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