साहित्य

खुद दीप बन लाओ उजाला

अरुण दिव्यांश

खोल दे अंधेरी कोठरी का ताला ,
निकाल दो दीवार पे लगा जाला ।
हो न पाए कहीं पर धुॅंआ धुॅंआ ,
खुद दीप बन लाओ उजाला ।।
रह न पाए कहीं भी यह तिमिर ,
कहीं न अपराध का बादल छाए ।
हृदय भी हो ये नभ सा उज्ज्वल ,
मस्तिष्क में भी उजाला छाए ।।
बन जाए दुनिया हंस सा सुंदर ,
आनंद के गीत खग सा ये गाए ।
बन जाए यह देव सा दुनिया ,
सारा जग हर्षित जीवन बीताए ।।
दुनिया वही जो ईश को भाए ,
मानव वही जो कुछ कर दिखाए।
मिट जाए यह जग से ही अंधेरा ,
जन जन में प्रकाश फैल जाए ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )
बिहार ।

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