साहित्य

कब समझोगे?

आचार्य शीलक राम

क्या कहा तोड़ नहीं पाये
इसलिये ये अंगूर खट्टे हैं।
बात यह बिल्कुल नहीं है
सभी एक थैली चट्टे-बट्टे हैं।।

बड़ा विचित्र रहस्य इनका
ये जो रसीले घने अंगूर हैं।
बीज,माली,खाद,पानी सभी
भरे हुये गंदगी से भरपूर हैं।

ये कोई अंगूर,दाख,किशमिश
कुछ भी फलादि फूलादि नहीं।
ये साक्षात् कालकूट विष फल
नशा इनमें कोई आजादी नहीं।।

फ़िर भी इनके लिये आपाधापी
हाथ -पैर मार रहे साहित्यकार।
संवेदनशीलता गायब बिल्कुल
राक्षसी सा लूटपाट का व्यवहार।।

फिर भी लोग इनको पाने को
करते तरह- तरह के जुगाड।
चापलूसी,राजनीति,चरण-वंदना
प्रशस्ति-गान,अंग-प्रदर्शन आड़।।

यहां प्रतिभा झाड़ू लगाती है
सृजनशीलता पोचा मारती।
बुद्धिमत्ता करती निराई-गुड़ाई
संवेदनशीलता सज्जा संवारती।।

‘नकल’ को ‘असल’ माना जाता
‘असल’ को माना जाता ‘नकल’
अंधभक्ति सबसे बड़ी योग्यता
मूढ़ता को ही माना जाता अक्ल।।

साहित्यिक परिभाषाएं बदलीं
बदल गये प्रतिमान पुरस्कार।
सृजनशीलता सर्वत्र अपमानित
मौलिकता विवश,भूखी,लाचार।।

क्या कहा शिकायत करोगे
भेदभाव विरोध में आवाज।
फंसा देंगे किसी छेड़खानी
बची खुची खो जायेगी लाज।।

कागज काले बस करते रहो
लिखते रहो स्वांतसुखाय।
पुरस्कार की आस न रखना
तुम से इसका न होगा उपाय।।

लेकिन जांच तो होना चाहिये
जिनको मिले बड़े-बड़े पुरस्कार।
जुगाड़ू ,चापलूस, कापी पेस्ट
सम्मुख जिनके प्रतिभा लाचार।।

लेकिन,किंतु,परंतु दिक्कत नहीं
कौन धुरंधर करेगा इसकी जांच।
इन्हीं का समीपस्थ साहित्यकार
आनी नहीं इन पर कोई आंच।।

माना ‘स्व’आनंद नहीं आवश्यक
पुरस्कार,शाबाशी,प्रशंसा,बड़ाई।
लेकिन संसार में संसार के भी हैं
इस पक्ष अवश्य होती तन्हाई।।

नाचा मोर जंगल देखा किसने
कहीं से तो मिले कोई सहारा।
किसी के तो हाथों में हमारी कृति
किसी को तो पसंद लेखन हमारा।।

भ्रष्टाचारी झूंड कब्जा किये बैठे
एक बार इसको,एक बार उसको।
पुरस्कार नहीं सब्जी मंडी में बोली
ये मेरा है सुनो, अब दे दो इसको।।

नीचे से ऊपर तक सैटिंग चलती
गैटिंग, बैटिंग का चल रहा जुगाड।
बिन सिफारिश,बिन पहुंच कुछ नहीं
चुल्हे में जाओ या चले जाओ भाड़।।

विरोध किया तो देशद्रोही बनोगे
नहीं किया तो अंतरात्मा में टीस। कानून का राज,मखौल नहीं है
तुम उन्नीस हो, जुगाड़ू इक्कीस।।
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आचार्य शीलक राम
वैदिक योगशाला
कुरुक्षेत्र

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