
सनातन धर्म के मूल ग्रंथ वेद ही ऐसे दिव्य ज्ञानग्रंथ हैं जिनमें लैंगिक समानता, मानवता की समता, और आध्यात्मिक स्वतंत्रता का शाश्वत दर्शन निहित है। विश्व की अन्य किसी भी धार्मिक परंपरा या मजहबी व्यवस्था में नारी को वह गरिमा, सम्मान और आध्यात्मिक अधिकार प्राप्त नहीं हुए जो वेदों ने प्रदान किए हैं। पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम, जैन, बौद्ध, सिख आदि किसी भी मत या संप्रदाय के ग्रंथों में नारी को समान रूप से पुरुष के समकक्ष स्थान नहीं दिया गया। वहाँ नारी की भूमिका गौण, उपेक्षित या पूर्णतः अनुपस्थित रही। इसके विपरीत वेदों में नारी को ‘शक्ति’, ‘माता’, ‘विदुषी’ और ‘ऋषि’ के रूप में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।
वेदों के अध्ययन से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि नारी केवल प्रेरणा का नहीं, सृजन और ज्ञान का भी केंद्र रही है। वेदों की ऋचाओं के द्रष्टा केवल पुरुष नहीं, बल्कि लगभग तीस के आसपास ऋषिकाएँ (महिला ऋषि) भी रही हैं जिन्होंने वेदों के मंत्रों को साक्षात् कर मानवजाति को अमृत-ज्ञान प्रदान किया। लोपामुद्रा, अपाला, घोषा, विश्ववारा, रोमशा, वागंभरीणी, शची, यमी, अदिति, सरमा, सूर्या, जुहू, कद्रू, सार्पराज्ञी, गौपायन आदि अनेक ऋषिकाओं के नाम वेदों में उल्लिखित हैं। इन ऋषिकाओं की दृष्टि में ईश्वर, धर्म और प्रकृति का ज्ञान पुरुष ऋषियों के समान ही दिव्य और गहन रहा है।
अब्राहमिक मजहबों—यहूदी, ईसाई और इस्लाम—के ग्रंथों की रचना में नारी का कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं रहा। इनके धार्मिक ग्रंथों के द्रष्टा, व्याख्याता और अनुयायी सभी पुरुष ही हैं। नारी वहाँ केवल अनुयायी या प्रेरणास्रोत के रूप में चित्रित की गई है, परंतु ज्ञान या मुक्ति के अधिकार से वंचित रखी गई। जैन मत में तो नारी की मुक्ति ही अस्वीकार की गई—यह कहा गया कि नारी को मोक्ष प्राप्त करने के लिए पहले पुरुष योनि में जन्म लेना पड़ेगा। इतना ही नहीं, ‘तत्त्वार्थसूत्र’ के लेखक के रूप में प्रसिद्ध जैन आचार्य उमास्वाति के नाम को ‘उमास्वामी’ कर दिया गया ताकि उसमें स्त्रीत्व का आभास न रहे।
बौद्ध मत में भी प्रारंभ में नारी को दीक्षा देने से मना कर दिया गया था। गौतम बुद्ध ने जब अपने अनुयायियों को भिक्षुणी बनाने से इनकार किया तो उनके शिष्य आनंद के बार-बार अनुरोध पर उन्होंने यह कहते हुए अनुमति दी कि “यदि स्त्रियाँ संघ में प्रवेश करेंगी तो यह धर्म 2000 वर्ष नहीं, केवल 500 वर्ष ही टिकेगा।” यह कथन उस मानसिकता का परिचायक है जिसमें नारी को समान योग्यता होते हुए भी द्वितीय श्रेणी में रखा गया। इसी प्रकार सिख मत में सभी गुरु पुरुष ही हुए—नारी को गुरु या प्रवक्ता का स्थान नहीं मिला।
इसके विपरीत वेदों में नारी को पुरुष के समान ही ब्रह्मज्ञान का अधिकारी माना गया है। उपनिषदों में गार्गी, मैत्रेयी और कात्यायनी जैसी विदुषी संवाद करती हैं, तर्क करती हैं, और ब्रह्म-विचार में पुरुष ऋषियों से कहीं अधिक गहराई प्रदर्शित करती हैं। गार्गी और याज्ञवल्क्य का संवाद इसका श्रेष्ठ उदाहरण है, जहाँ गार्गी ने अद्वैत ब्रह्म के रहस्य पर गहन प्रश्न उठाए। यह उस समय का अद्भुत बौद्धिक वातावरण दर्शाता है जब नारी न केवल शिक्षा ग्रहण करती थी बल्कि दार्शनिक विमर्श में भी सक्रिय भूमिका निभाती थी।
सनातन धर्म के इस वैदिक दर्शन में नारी और पुरुष को ‘पूरक’ माना गया है, ‘प्रतिस्पर्धी’ नहीं। शिव बिना शक्ति निष्क्रिय हैं, और शक्ति बिना शिव निरर्थक। इसीलिए शैव संप्रदाय की सभी शाखाओं में यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया कि सृष्टि का हर कार्य शिव और शक्ति दोनों के संयोग से ही संभव है। यही संतुलन, यही सामंजस्य, यही समानता वेदों की आत्मा है।
वेदों का यह दृष्टिकोण आधुनिक मानवाधिकारों की भावना से कहीं अधिक व्यापक और प्रगतिशील है। यहाँ नारी को केवल सामाजिक या राजनीतिक अधिकार नहीं, बल्कि आध्यात्मिक स्वतंत्रता भी दी गई है। वेदों में नारी को शिक्षा प्राप्त करने, विवाह में अपने जीवनसाथी का चयन करने, यज्ञ करने, मंत्रोच्चारण करने और धार्मिक कर्तव्यों के पालन का अधिकार है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” (जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहीं देवता निवास करते हैं) — यह कोई भावनात्मक वाक्य नहीं, बल्कि वैदिक सभ्यता की आत्मा है।
सनातन धर्म का यह वैचारिक स्वरूप केवल लिंग-समानता तक सीमित नहीं है। इसमें सामाजिक समानता का भी उद्घोष है। वेदों में चारों वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—के ऋषि और ऋषिकाएँ समान रूप से विद्यमान हैं। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि सनातन धर्म किसी जातिगत, वर्णगत या लैंगिक भेदभाव पर नहीं, बल्कि कर्म और योग्यता पर आधारित है।
वेदों को छोड़कर यदि हम अन्य सभी धार्मिक ग्रंथों पर दृष्टि डालें तो पाएँगे कि उनमें विज्ञान, तर्क और समता का अभाव है। उनमें अंधविश्वास, पाखंड, और भेदभाव का गहरा प्रभाव है। नारी को अधिकांशतः पुरुष के अधीन या पाप का कारण बताया गया। इसके विपरीत वैदिक ऋषियों ने कहा — “न स्त्री पुरुषो न च वै बाल वृद्धौ” — आत्मा न स्त्री है, न पुरुष; न युवा है, न वृद्ध। आत्मा का कोई लिंग नहीं होता। यह सिद्धांत ही लैंगिक समानता की चरम अभिव्यक्ति है।
आचार्य शीलक राम जी के अनुसार, “सनातन धर्म ही वह संस्कृति है जो मनुष्य को मानवता का बोध कराती है। इसमें किसी के साथ किसी प्रकार का भेद नहीं है—न लिंग के आधार पर, न वर्ण के, न जन्म के। यहाँ सबके लिए ज्ञान का द्वार समान रूप से खुला है।”
आज के तथाकथित आधुनिक समाज में जहाँ ‘महिला अधिकार’ का प्रश्न कानून और आरक्षण तक सीमित रह गया है, वहाँ वेदों की यह चेतना और भी अधिक प्रासंगिक हो उठती है। आधुनिक सभ्यता जिसे समानता कहकर प्रचारित करती है, वह वैदिक दृष्टि की केवल एक सीमित छाया है। वास्तविक समानता तो तब है जब स्त्री-पुरुष के मध्य अधिकार और कर्तव्य समान हों, और दोनों सृष्टि के साझे सहयोगी बनें।
दुर्भाग्य से आजकल कुछ तथाकथित आधुनिक गुरुओं और धार्मिक संस्थानों ने धर्म को व्यापार बना दिया है। आचार्य शीलक राम जी के शब्दों में, “आजकल के माडर्न गुरुओं की औलादों को देखकर ऐसा लगता है कि धन-दौलत परमात्मा तो नहीं है, लेकिन यह परमात्मा से कम भी नहीं है।” यह वाक्य आधुनिक धार्मिक प्रवृत्तियों पर एक तीखा व्यंग्य है, जो बताता है कि धर्म का सार कभी भी वैभव, दिखावा और संपत्ति में नहीं, बल्कि ज्ञान, संयम और समानता में निहित है।
अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि—
वेद ही विश्व के एकमात्र ऐसे ग्रंथ हैं जिनमें नारी और पुरुष को समान अधिकार प्राप्त हैं।
वेदों की यह चेतना आज भी मानवता के लिए पथप्रदर्शक है। यदि समाज वास्तव में लैंगिक समानता चाहता है तो उसे फिर से वेदों की ओर लौटना होगा, जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों को ब्रह्मज्ञान का समान अधिकारी माना गया है। यही आचार्य शीलक राम का वैदिक दृष्टिकोण है—
एक ऐसा दर्शन जो नारी को श्रद्धा नहीं, अधिकार देता है; सम्मान नहीं, समानता देता है।
डॉ सुरेश जांगडा
राजकीय महाविद्यालय सांपला, रोहतक (हरियाणा)



