धर्म/आध्यात्म

माँ अन्नपूर्णा महात्म्य

पं.अपूर्व नारायण तिवारी 'बनारसी बाबू'

मोक्षदायिनी काशी में बाबा काशी विश्‍वनाथ मंदिर से कुछ ही कदमों की दूरी पर माता अन्‍नपूर्णा का दिव्य मंदिर है । इन्‍हें तीनों लोकों की जगद माता माना जाता है । कहा जाता है कि इन्‍होंने स्‍वयं भगवान शिव को एक बार जगत कल्याण हेतु भिक्षा देते हुए खाना खिलाया था । इस मंदिर की दीवाल पर तमाम चित्र बने हुए हैं । एक चित्र में देवी कलछी पकड़ी हुई भोजन दे रही हैं ।
अन्नकूट महोत्सव पर माँ अन्नपूर्णा की स्वर्ण प्रतिमा का वर्ष में एक दिन के लिए सभी भक्त दर्शन करते हैं । तब मीलों लंबी लाइन लग जाती है और रात भर भगत लाइन में खड़े होकर दर्शन का इंतजार करते हैं ‌।उन्हें मां का दर्शन पश्चात प्रसाद और खजाना मिलता है ‌।
मां अन्नपूर्णा मंदिर में आद्य शंकराचार्य ने अन्नपूर्णा स्त्रोत् की रचना कर “ज्ञान और वैराग्य” प्राप्ति की कामना की थी ।

अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकरप्राण बल्लभे,
ज्ञान वैराग्य सिद्धर्थं भिक्षां देहि च पार्वती ।

माँ अन्नपूर्णा देवी हिन्दू धर्म में मान्य देवी-देवताओं में विशेष रूप से पूजनीय हैं । इन्हें माँ जगदम्बा का ही साक्षात रूप माना गया है,
जिनसे सम्पूर्ण विश्व का संचालन होता है । इन्हीं जगदम्बा के अन्नपूर्णा स्वरूप से संसार का भरण-पोषण होता है । अन्नपूर्णा का शाब्दिक अर्थ है-‘धान्य’ (अन्न) की अधिष्ठात्री । सनातन धर्म की मान्यता है कि समस्त प्राणियों को भोजन
माँ अन्नपूर्णा की कृपा से ही प्राप्त होता है । शिव की अर्धांगनी, कलियुग में माता अन्नपूर्णा की
पुरी काशी है,किंतु सम्पूर्ण जगत् उनके नियंत्रण में है । बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी के मां अन्नपूर्णा जी के आधिपत्य में आने की कथा बड़ी रोचक है।🙏

भगवान शंकर जब पार्वती जी के संग विवाह करने के पश्चात् उनके पिता के क्षेत्र हिमालय के अन्तर्गत कैलास पर रहने लगे, तब देवी ने अपने मायके में निवास करने के बजाय अपने पति की नगरी काशी में रहने की इच्छा व्यक्त की ।तब महादेव उन्हें साथ लेकर अपने सनातन गृह अविमुक्त-क्षेत्र (काशी) नगरी में आ गए ।
काशी उस समय केवल एक महाश्मशान नगरी थी । माता पार्वती को सामान्य गृहस्थ स्त्री के समान ही अपने घर का मात्र श्मशान होना नहीं भाया । इस पर यह व्यवस्था बनी कि सत्य,त्रेता, और द्वापर, इन तीन युगों में काशी श्मशान रहे और कलियुग में
यह माता अन्नपूर्णा की पुरी होकर बसी रहे ।
इसी कारण वर्तमान समय में माँ अन्नपूर्णा का मंदिर काशी का प्रधान देवी पीठ है । स्कन्द पुराण के ‘काशीखण्ड’ में लिखा है कि भगवान विश्वेश्वर गृहस्थ हैं और मांँ भवानी उनकी गृहस्थी चलाती हैं । अत: काशीवासियों के सभी योग-क्षेम का भार इन्हीं पर है । ‘ब्रह्मवैव‌र्त्तपुराण’ के काशी-रहस्य के अनुसार भवानी ही स्वयं अन्नपूर्णा हैं । समस्त जनमानस आज भी अन्नपूर्णा को ही जगदंबा भवानी मानता है ।
श्रद्धालुओं की ऐसी धारणा है कि माँ अन्नपूर्णा की नगरी काशी में कभी कोई भूखा नहीं सोता है ।
अन्नपूर्णा माता की उपासना से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । ये अपने भक्त की सभी विपत्तियों से रक्षा करती हैं । इनके प्रसन्न हो जाने पर अनेक जन्मों से चली आ रही दरिद्रता का भी निवारण हो जाता है । ये अपने भक्त को सांसारिक सुख प्रदान करने के साथ मोक्ष भी प्रदान करती हैं। तभी तो ऋषि- मुनि इनकी स्तुति करते हुए कहते हैं-

शोषिणीसर्वपापानांमोचनी सकलापदाम्।
दारिद्र्यदमनीनित्यंसुख-मोक्ष-प्रदायिनी ॥

काशी की पारम्परिक ‘नवगौरी यात्रा’ में आठवीं भवानी गौरी तथा नवदुर्गा यात्रा में अष्टम महागौरी
का दर्शन-पूजन अन्नपूर्णा मंदिर में ही होता है। अष्टसिद्धियों की स्वामिनी अन्नपूर्णाजी की चैत्र
तथा आश्विन के नवरात्र में अष्टमी के दिन 108 परिक्रमा करने से अनन्त पुण्य फल प्राप्त होता है।
सामान्य दिनों में अन्नपूर्णा माता की आठ परिक्रमा करनी चाहिए।
प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन अन्नपूर्णा देवी के निमित्त व्रत रखते हुए उनकी
उपासना करने से घर में कभी धन-धान्य की कमी नहीं होती है ।
भविष्यपुराण में मार्गशीर्ष मास के अन्नपूर्णा व्रत की कथा का विस्तार से वर्णन मिलता है। काशी के कुछ प्राचीन पंचांग मार्गशीर्ष की पूर्णिमा में अन्नपूर्णा जयंती का पर्व प्रकाशित करते हैं। अन्नपूर्णा देवी का रंग जवापुष्प के समान है ।
इनके तीन नेत्र हैं, मस्तक पर अ‌र्द्धचन्द्र सुशोभित है। भगवती अन्नपूर्णा अनुपम लावण्य से
युक्त नवयुवती के सदृश हैं। बन्धूक के फूलों के मध्य दिव्य आभूषणों से विभूषित होकर ये प्रसन्न मुद्रा में स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान हैं।
देवी के बायें हाथ में अन्न से पूर्ण माणिक्य,रत्न से जड़ा पात्र तथा दाहिने हाथ में रत्नों से निर्मित
कलछुल है। अन्नपूर्णा माता अन्न दान में सदा तल्लीन रहती हैं।

देवीभागवत में राजा बृहद्रथ की कथा से अन्नपूर्णा माता और उनकी पुरी काशी की महिमा उजागर होती है । भगवती अन्नपूर्णा पृथ्वी पर साक्षात कल्पलता हैं, क्योंकि ये अपने भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान
करती हैं । स्वयं भगवान शंकर इनकी प्रशंसा में कहते हैं- “मैं अपने पांचों मुख से भी अन्नपूर्णा का पूरा गुण-गान कर सकने में समर्थ नहीं हूँ। यद्यपि बाबा विश्वनाथ काशी में शरीर त्यागने वाले को तारक-मंत्र देकर मुक्ति प्रदान करते हैं, तथापि इसकी याचना माँ अन्नपूर्णा से ही की
जाती है । गृहस्थ धन-धान्य की, तो योगी ज्ञान-वैराग्य की भिक्षा इनसे मांगते हैं ।यही काशी का रहस्य है ।।

अन्नपूर्णेसदा पूर्णेशङ्करप्राणवल्लभे ‌।।
ज्ञान-वैराग्य-सिद्धयर्थम् भिक्षाम्देहिचपार्वति ॥

मंत्र-महोदधि,तन्त्रसार,पुरश्चर्यार्णव आदि ग्रन्थों में अन्नपूर्णा देवी के अनेक मंत्रों का उल्लेख तथा
उनकी साधना-विधि का वर्णन मिलता है ।

मंत्रशास्त्र के सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘शारदातिलक’ में अन्नपूर्णा के सत्रह अक्षरों वाले निम्न मंत्र का
विधान वर्णित है-

“ह्रीं नम: भगवतिमाहेश्वरिअन्नपूर्णेस्वाहा”

मंत्र को सिद्ध करने के लिए इसका सोलह हज़ार बार जप करके, उस संख्या का दशांश (1600 बार) घी से युक्त अन्न के द्वारा होम करना चाहिए । जप से पूर्व यह ध्यान करना होता है-

रक्ताम्विचित्रवसनाम्नव चन्द्रचूडामन्न
प्रदाननिरताम्स्तनभारनम्राम्।नृत्यन्तमिन्दुशकला
भरणंविलोक्यहृष्टां
भजेद्भगवतीम्भवदु:खहन्त्रीम् ॥

अर्थात ‘जिनका शरीर रक्त वर्ण का है, जो अनेक रंग के सूतों से बुना वस्त्र धारण करने वाली हैं, जिनके मस्तक पर बालचंद्र
विराजमान हैं,जो तीनों लोकों के वासियों को सदैव अन्न प्रदान करने में व्यस्त रहती हैं, यौवन से सम्पन्न,भगवान शंकर को अपने
सामने नाचते देख प्रसन्न रहने वाली,संसार के सब दु:खों को दूर करने वाली,भगवती अन्नपूर्णा का मैं स्मरण करता हूँ ।’

‼️प्रात:काल नित्य 108 बार अन्नपूर्णा मंत्र का जप करने से घर में कभी अन्न-धन का अभाव नहीं होता । शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन अन्नपूर्णा का पूजन-हवन करने से वे अति प्रसन्न होती हैं ।
करुणा की मूर्ति ये देवी अपने भक्त को भोग के साथ मोक्ष प्रदान करती हैं । सम्पूर्ण विश्व के अधिपति बाबा विश्वनाथ की अर्धांगिनी मांँ
अन्नपूर्णा सबका बिना किसी भेद-भाव के भरण -पोषण करती हैं । जो भी भक्त भक्ति-भाव से इन वात्सल्यमयी माता का अपने घर में आवाह्न करता है,माँ अन्नपूर्णा उसके यहाँ सूक्ष्म रूप से अवश्य वास करती हैं ।
हर हर महादेव
ॐ अन्नपूर्णा देव्यै नम
जय जै भवानी
पं.अपूर्व नारायण तिवारी ‘बनारसी बाबू’

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