
भारत बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है। यहाँ भाषाओं की विविधता को धरोहर के रूप में देखा जाता है। संविधान ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया ताकि देश की अखंडता और सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ किया जा सके, किंतु आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हिन्दी को वह सम्मान नहीं मिला जिसकी वह हकदार थी। इस संदर्भ में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जिन संगठनों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में ऐतिहासिक योगदान दिया, क्या वे स्वयं आज हिन्दी को महत्व दे रहे हैं? विशेष रूप से आर्य समाज, जिसने भारतीय संस्कृति और भाषा चेतना को जगाने में बड़ी भूमिका निभाई, क्या आज वह हिन्दी के प्रश्न पर अपनी पुरानी भूमिका निभा रहा है?
महर्षि दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने वेदों को सत्य का प्रमाण मानते हुए समाज में शिक्षा, समानता और सुधार का संदेश दिया। उनका आग्रह था कि भारतीय अपनी मातृभाषाओं में शिक्षा ग्रहण करें। उन्होंने “सत्यार्थ प्रकाश” जैसे ग्रंथ हिन्दी में ही लिखे ताकि उनके विचार जनसाधारण तक सरलता से पहुँच सकें। इस दृष्टि से आर्य समाज का जन्म ही भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिन्दी के उत्थान से जुड़ा हुआ था।
आर्य समाज ने गुरुकुलों, सभा-प्रवचनों और आंदोलनों के माध्यम से हिन्दी का प्रचार किया। पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश और बिहार जैसे हिन्दीभाषी क्षेत्रों में आर्य समाज के प्रचारक हिन्दी का ही प्रयोग करते रहे। स्वतंत्रता संग्राम में भी आर्य समाज के नेता हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के पक्षधर थे। लाला लाजपत राय ने कहा था कि हिन्दी ही भारत को एक सूत्र में बाँध सकती है। स्वामी श्रद्धानंद ने गुरुकुल कांगड़ी में हिन्दी के माध्यम से वैदिक शिक्षा को प्रतिष्ठित किया। इससे स्पष्ट है कि आर्य समाज का इतिहास हिन्दी के उत्थान से गहराई से जुड़ा है।
परंतु वर्तमान में स्थिति बदलती दिखाई देती है। आज कई आर्य समाजी संस्थानों व विद्वानों द्वारा अंग्रेज़ी को प्राथमिकता दी जा रही बल्कि हिन्दी में कार्य करने वाले लोगों को हत्तोसाहित भी किया जा रहा है। उदाहरणस्वरूप, डीएवी (दयानंद एंग्लो वैदिक) संस्थान, जो आर्य समाज की शिक्षण परंपरा का प्रमुख अंग है, देशभर में हज़ारों विद्यालय और कॉलेज चलाता है। डीएवी ने शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति की है, परंतु इनमें से अधिकांश संस्थान अंग्रेज़ी माध्यम पर आधारित हैं। हिन्दी का स्थान वहाँ केवल एक विषय तक सीमित रह गया है। विद्यार्थी अंग्रेज़ी में विज्ञान और तकनीक पढ़ते हैं, जबकि हिन्दी केवल परीक्षा पास करने के लिए पढ़ाई जाती है। यही स्थिति अन्य आर्य समाजी संस्थानों की भी है, जहाँ प्रवचन तो हिंदी में होते हैं लेकिन शिक्षा और प्रबंधन की भाषा अंग्रेज़ी होती जा रही है।
यह स्थिति आर्य समाज के मूल उद्देश्य के विपरीत है। महर्षि दयानंद ने अंग्रेज़ी दासता का विरोध किया था और स्वदेशी भाषा में शिक्षा का समर्थन किया था। लेकिन आज आर्य समाजी विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अंग्रेज़ी का वर्चस्व है। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो आर्य समाज अपनी उस ऐतिहासिक भूमिका से भटक जाएगा जिसने उसे राष्ट्रीय पुनर्जागरण का अग्रदूत बनाया था।
हिन्दी केवल राजभाषा नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की आत्मा है। इसमें लोकजीवन, धर्म और समाज की धड़कन बसती है। हिन्दी का वैश्विक महत्व भी बढ़ा है—आज यह विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। आर्य समाज जैसे संगठन के लिए हिन्दी केवल एक विषय नहीं बल्कि संस्कृति, धर्म और राष्ट्रीय अस्मिता की भाषा है। यदि आर्य समाज इसे अपने कार्यकलापों में केंद्रीय स्थान नहीं देगा, तो वह समाज से धीरे-धीरे कटता जाएगा।
भाषा केवल संवाद का साधन नहीं बल्कि संस्कारों और मूल्यों की संवाहक भी होती है। हिन्दी में वेदों और उपनिषदों की व्याख्या जनसाधारण के लिए सरल और आत्मीय हो सकती है, जबकि अंग्रेज़ी उस आत्मीयता को खो देती है। अंग्रेज़ी चाहे आधुनिक तकनीक और वैश्विक संवाद के लिए आवश्यक हो, किंतु संस्कार और संस्कृति की जड़ें हिन्दी जैसी भारतीय भाषाओं में ही हैं।
आचार्य शीलक राम जैसे विद्वानों ने अपने लेखन में यह स्पष्ट किया है कि राष्ट्र का पतन तब शुरू होता है जब वह अपनी भाषा और संस्कृति को त्याग देता है। उनका कहना है कि स्वदेश, स्वभाषा, स्वसंस्कृति और स्वधर्म का सम्मान किए बिना कोई भी राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता। उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रीय चेतना की धड़कन बताते हुए संगठनों से आग्रह किया है कि वे इसे प्राथमिकता दें।
इस संदर्भ में आर्य समाजियों को अपनी नीतियों और कार्यों पर पुनर्विचार करना चाहिए। उसे चाहिए कि अपने विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी माध्यम को व हिन्दी में कार्य करने वालों को बढ़ावा दे, वेद और वैदिक साहित्य की व्याख्या हिन्दी में करे, अपनी सभाओं और सम्मेलनों में हिन्दी का ही प्रयोग करे और युवाओं में हिन्दी चेतना जगाए। डीएवी जैसे संस्थानों को उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए कि अंग्रेज़ी माध्यम के साथ-साथ हिन्दी माध्यम शिक्षा भी संभव है। यदि आर्य समाज यह नहीं करेगा, तो यह अपने आदर्शों से विचलन माना जाएगा।
यहां पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि आर्य समाज का इतिहास हिन्दी के गौरव से जुड़ा हुआ है। महर्षि दयानंद और उनके अनुयायियों ने हिन्दी को राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता का साधन बनाया था। आज आर्य समाज को उसी परंपरा को पुनर्जीवित करना होगा। राजभाषा हिन्दी का महत्व आर्य समाज में कम नहीं हो सकता; बल्कि यह उसका नैतिक कर्तव्य है कि वह हिन्दी को सम्मान दिलाने में पुनः अग्रणी भूमिका निभाए। हिन्दी के बिना आर्य समाज की पहचान अधूरी है, और यदि वह समाज सुधार और राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य साधना चाहता है तो उसे हिन्दी को अपने हर कार्य और आंदोलन का केंद्र बनाना होगा।
डॉ सुरेश जांगडा
राजकीय महाविद्यालय सांपला, रोहतक
(हरियाणा)



