
राम- रावण युद्ध ,
प्रारंभ होने को था।
सेतुबंध हो रहा था।
नल और नील के
कुशल प्रबंधन में,
ऋक्ष और कपि गण
बड़ी-बड़ी शिलाएंँ लाते थे।
राम-नाम अंकित कर उन पर,
श्री राम की जयकार कर,
उन्हें जलधि पर तैराते थे।
बड़े- बड़े पाषाण खंडों को,
पानी में तैरते देख कर,
श्री राम थे विस्मय- विमुग्ध,
सहसा विचार यह
उनके मन में आया,
मैं भी फेंकू्ं पत्थर
एक पानी में,
देखूंँ कैसे जलधि ने,
उसे वक्ष पर तैराया।
तीव्र औत्सुक्य लिए ,
संकल्प को कार्य रूप देने ,
श्रीराम अकेले ही चले ,
सागर तट की ओर।
पवनसुत ठहरे
राम के अनन्य भक्त,
प्रतिपल समर्पित
इष्ट के समक्ष,
श्रीराम को यूँ चुपचाप,
अकेले ही जाते देख,
बहुत चकराए,
श्रीराम की सेवा का,
अवसर मिला पाकर,
जिज्ञासा भरे उनके,
पीछे-पीछे धाए।
अस्ताचल गामी था सूर्य,
लहरों का फेनिल नर्तन,
सागर का मंद्र-गर्जन,
नील जल पर विकीर्ण,
किरणों की इंद्रधनु आभा,
दूर था दीप्तिमय,
लंका का प्रासाद हेममय,
अपूर्व अनुपम छटा,
निहारते रहे राम ,
अनिमेष,चित्रलिखित,
इस सौंदर्य युत दृश्य को।
सहसा ही उन्हें अपना
प्रयोजन स्मरण आया।
इधर-उधर देख ,चुपके से,
लघु पाषाण एक उठाया,
फेंका सागर -लहरों में,
पर प्रयास हुआ व्यर्थ,
सागर ने पाहन न तैराया।
कुछ पल प्रतीक्षा कर,
राम वापस ही थे मुड़े,
कि पवनसुत चरणों में पड़े,
संकोच भरे मन से,
पवनसुत को अपना,
संशय बताया।
सुंदर सहज समाधान
जिसका हनुमान ने बताया।
विहंस बोले मृदुल स्वर में,
आप से परित्यक्त कोई ,
भला कैसे तर सकता है?
पाहन हो या प्राणी,
आपकी शरण गह कर ही,
पार उतर सकता है।
आपकी कृपा से ही तो,
ऋक्ष -कपि गण
सेतुबंध कर रहे हैं,
राम नाम अंकित पाहन ,
तभी तो जलधि पर
तिर रहे हैं।
राम की जिज्ञासा का,
सहज समाधान इस तरह,
कपीश ने पूरा किया,
विहंस राम ने प्रणत कपि को
उठा ,उर से लगा लिया।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली




