सौंदर्य से परिपूर्ण: काशी की देव दीपावली
लाखों दीयों से जगमग होगा गंगा घाट: कार्तिक पूर्णिमा को मनाई जाती है काशी में देव दीपावली

डॉ सीमांत प्रियदर्शी ( युवा लेखक एवं समीक्षक ) वाराणसी, उ. प्र.
काशी में सभी प्रमुख देवी देवताओं के वास के कारण यहाँ देव- दीपावली एक विशिष्ट उत्सव होता है, जिसकी छटा निराली होती है। मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन देवतागण दीवाली मनाते हैं क्योंकि इसी दिन देवताओं का काशी में प्रवेश हुआ था। कहते हैं कि तीनों लोको मे त्रिपुराशूर राक्षस का आतंक फैला था, देवतागणों ने भगवान शिव से अनुरोध किया कि त्रिपुराशूर राक्षस से उन्हें मुक्ति दिलाएं। भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन राक्षस का वध कर उसके अत्याचारों से सभी को मुक्त कराया और त्रिपुरारि कहलाये। इसी ख़ुशी में शिव की आस्था में मुग्ध देवताओं ने स्वर्ग लोक में दीप जलाकर दीपोत्सव मनाया। तभी से कार्तिक पूर्णिमा को देवदीवाली मनायी जाने लगी। काशी में देवदीवाली उत्सव मनाये जाने के सम्बन्ध में एक दूसरी कहानी भी मिलती है, जो भगवान शिव से ही संबंधित है। मान्यता है कि राजा दिवोदास ने अपने राज्य काशी में देवताओं के प्रवेश पर रोक लगा रखी थी।, कार्तिक पूर्णिमा के दिन भेष बदलकर भगवान शिव ने काशी के मनोरम गंगा तट पर अवस्थित पंचगंगा घाट पर स्नान-ध्यान किया, यह खबर जब राजा दिवोदास को हुई तो उन्होंने देवताओं के प्रवेश प्रतिबन्ध को समाप्त कर दिया। सभी देवताओं ने काशी में प्रवेश किया और गंगातट पर दीप प्रज्जवलित कर दीपावली मनाई थी। प्राचीन परम्परा और संस्कृति को संजोये काशी में देवदीवाली की परम्परा सबसे पहले पंचगंगा घाट १९१५ मे हजारो दिये प्रज्जवलित कर शुभारम्भ किया था। देवताओं के इस उत्सव में प्रज्ज्वलित लाखों दीयों के केवल काशीवासी ही नहीं बल्कि विश्व भर से लोग आकर साक्षी बनते हैं।
बनारस मात्र एक नगर नहीं, एक संस्कृति है। एक इतिहास है। काशी या वाराणसी भारत ही नहीं विश्व के प्राचीनतम नगरों में से एक है। बाबा विश्वनाथ की इस नगरी में पतित पावनी गंगा द्वितीया के चन्द्रमा के समान आकार बनाती आगे बढ़ती है। यही एक ऐसी नगरी है, जहाँ गंगा की धारा अनादि काल से एक ही स्थान पर प्रवाहित होती आ रही है। गंगा के बाएँ तट पर मनोरम ढंग से बसा यह प्राचीन नगर भारतीय धर्म एवं संस्कृति का जीता-जागता संग्रहालय है। वैष्णव, शैव, तांत्रिक, बौद्ध, जैन आदि सभी सम्प्रदाय के लोग इस नगरी को महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल मानते हैं। विश्वविख्यात काशी की गलियाँ और घाट देवी -देवताओं से जुड़े हैं। हर गली में किसी न किसी देवी – देवता का वास है। यहाँ के तीर्थ स्थल राजमार्गो पर नहीं बल्कि गलियों में विराजमान हैं। बाबा विश्वनाथ गली में, अन्नपूर्णा देवी गली में, बाबा काल भैरव जी गली में, सिद्ध विनायक गणेश जी गली में, देवी लक्ष्मी गली में, चन्द्रघण्टा देवी गली में, कात्यायनी देवी गली में, वाराहिणी देवी गली में, सिद्धिदात्री देवी गली में, बड़ा गणेश गली में, खाटू श्याम जी गली में आदि, इसके साथ ही हर गंगा तट के हर घाट पर शिवालय स्थापित हैं।
त्रिलोक से न्यारी, मुक्ति की जन्मभूमि, बाबा विश्वनाथ की राजधानी ‘काशी’ की रचना स्वयं भगवान शंकर ने की है। प्रलय काल में काशी का नाश नहीं होता । उस समय पंचमहाभूत यहीं पर शवरूप में शयन करते हैं। इसीलिए इसे महाश्मशान भी कहा गया है। काशी का संविधान भगवान शिव का बनाया हुआ है जबकि त्रलोक्य का ब्रह्मा द्वारा । त्रैलोक्य का पालन विष्णु और दण्ड का कार्य यमराज करते हैं परन्तु काशी का पालन श्री शंकर और दण्ड का कार्य भैरव जी करते हैं। यमराज के दण्ड की पीड़ा से बत्तीस गुनी अधिक पीड़ा भैरव के दण्ड की होती है। जीव यमराज के दण्ड को सहन कर लेता है, परन्तु भैरव का दण्ड असह्य होता है। भगवान शंकर अपनी नगरी काशी की व्यवस्था अपने गणों द्वारा कराते हैं। इन गणों में दण्डपाणि आदि भैरव, भूत- प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी, योगिनी, बीर आदि प्रमुख हैं । भगवान शिव ने ब्रह्मा जी से अत्यंत क्रोधित होकर अपने अंश से भैरवाकृति को प्रकट किया। शिव ने उससे कहा कि ‘काल भैरव’ ! तुम इस पर शासन करो। साथ ही उन्होंने कहा कि तुम साक्षात ‘काल’ के भी कालराज हो । तुम विश्व का भरण करने में समर्थ होगे, अतः तुम्हारा नाम ‘भैरव’ भी होगा । तुमसे काल भी डरेगा, इसलिए तुम्हें ‘काल भैरव’ भी कहा जाएगा। दुष्टात्माओं का तुम नाश करोगे। भैरव को वरदान देते हुए भगवान शंकर ने कहा कि हे कालराज ! हमारी सबसे बड़ी मुक्ति पुरी ‘काशी’ में तुम्हारा आधिपत्य रहेगा । वहाँ के पापियों क़ो तुम्हीं दण्ड दोगे क्योंकि ‘चित्रगुप्त’ काशीवासियों के पापों का लेखा-जोखा नहीं रख सकेंगे। वह सब तुम्हें ही रखना होगा ।मान्यता है कि भैरव के भक्तों से यमराज भय खाते हैं। काशीवासी भैरव के सेवक होने के कारण कलि और काल से नहीं डरते । भैरव का उपवास करने वाला मनुष्य महापापों से मुक्त हो जाता है । काशी में भैरव का दर्शन करने से सभी अशुभ कर्म भस्म हो जाते हैं। सभी जीवों के जन्मान्तरों के पापों का नाश हो जाता है। जो मूर्ख काशी में भैरव के भक्तों को कष्ट देते हैं उन्हें दुर्गति भोगनी पड़ती है। श्री काल भैरव काशी के कोतवाल हैं। काशी में आठ भैरव ‘ अष्ट भैरव ‘ के नाम से विख्यात हैं। ये आठों भैरव काशी के आठों क्षेत्रों में निवास करते हुए अपने गणों (बीरों) के द्वारा काशी क्षेत्र का रक्षण करते हैं। ये वीर हैंः लहुराबीर, मुरचालीबीर, ड्योढ़ियाबीर दैत्राबीर , भोजूबीर आदि । इन अष्ठ भैरव के अतिरिक्त आनन्द भैरव, आस भैरव आदि अनेक भैरव भी यत्र-तत्र विद्यमान हैं।
मान्यता है कि पार्वती जी से विवाह के बाद भगवान शिव ने अपना निवास स्थल के रूप में काशी को चुना और काशी में ऐसे रम गये कि फिर छोड़ा ही नहीं। यही वजह है कि जो देव, ऋषि, मुनि, यक्ष, शिवगण इत्यादि काशी में पधारे , शिवरूप में विलीन हो गये और उनकी स्मृति उनके द्वारा स्थापित शिवलिंगों व मन्दिरों में धरोहर के रूप में तीर्थ स्थल बन गयी। काशी में शिवालयों की संख्या बहुत बड़ी है और शिवलिंगों की संख्या का निर्धारण करना मुश्किल भरा है। घर-घर में, गलियों में, चारो ओर शिवलिंग स्थापित हैं। उनको किस प्रकार गिना जाय? इसी कारण, कहावत है कि काशी में प्रत्येक पत्थर एवं कंकण शिव का प्रतीक है। पुराणों का मत है कि भारत के सभी तीर्थ काशी में निवास करते हैं और इस प्रकार उन तीर्थों के शिवायतन भी काशी में उपस्थित हैं।बनारस एक नगर नहीं अपितु एक विशाल देवालय है-विराट मन्दिर। यहाँ एक ओर प्राचीन ग्राम देवताओं के रूप में वीरों की उपासना प्रचलित है, तो दूसरी ओर वृक्षों के साथ ही पशुओं की भी पूजा होती है। विशालकाय नंदी तो भूतभावन भगवान का ही वाहन है। जहाँ-जहाँ नंदी हैं, वहाँ शंकर विराज- मान हैं। यहां का हर कंकर शंकर है। हर घर एक गर्भगृह है, हर चौराहा किसी न किसी देवी या देवता का चौरा है। यह देवी देवताओं का संगम है। वास्तव में काशी शैवों और वैष्णवों की समन्वय भूमि है।
हिन्दू धर्म में शक्ति (देवी) की पूजा अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित है । शक्ति का प्रारम्भिक रूप शिव की पत्नी उमा अथवा पार्वती हैं जो जगज्जननी कही जाती हैं । वस्तुतः उनका तान्त्रिक और दार्शनिक विकास शक्ति के रूप में हुआ । अतः शक्ति और शिव की अभिन्नता स्वाभाविक है । शक्ति के रूप में विकसित होकर पार्वती कपाला-भरणा काली और सिंहवाहिनी दुर्गा बन गईं, कालान्तर में जिन्होंने असीमित शक्ति से सम्पन्न महाकाली का रूप ग्रहण किया। यहाँ यह स्मरणीय है कि शिव भी ‘महाकाल’ कहे जाते हैं । इसलिए शक्ति और शिव की एकात्मकता स्वयंसिद्ध है । वस्तुतः हिन्दू धर्म में विष्णु और शिव के अतिरिक्त अगर किसी देवता की महिमा और गरिमा चरम सीमा पर पहुँची तो वह केवल शक्ति (दुर्गा) की । वैष्णव और शैव धर्म की तरह समाज में शक्ति का भी प्रभाव रहा है तथा इसके अनुयायी अत्यधिक विकट और कट्टर भी रहे हैं । शक्ति की पूजा और उपासना करने के कारण इसके धर्मावलम्बी ‘शाक्त’ कहे गए। कालान्तर में यही शक्ति सम्प्रदाय हिन्दू धर्म का प्रभावकारी और चमत्कारी सम्प्रदाय बन गया । धीरे-धीरे ‘शक्ति’ के साथ अनेक नाम जुट गए, जो उनके विकसित होनेवाले क्रमिक रूपों के परिचायक हैं । काशी में कुल 86 देवी पीठ हैं जिनमें 68 देवीपीठ के नाम इस प्रकार हैं -अश्वारूढा, आसावासा, अमृतेश्वरी, अरुंधती, अंबिका, उत्तरा, कौमारी, कलशेश्वरी, कुब्जा, गजास्य, चौंदरी, चित्रघंटा, चर्विका, चित्रग्रीवा, चामुंडा, लागवक्रेश्वरी, ज्येष्ठा, प्रेतभुजा, विशालाक्षी, विश्वभुजा, विश्वाः, बंदी, विश्वागौरी, बाराही, वज्रहस्ता, विरूपाक्षी, विकटा, कात्यायनी, वदन प्रेक्षणा, विंध्यवासिनी, हैं विजय भैरवी, वाराणसी, भीमचंडी, भवानी, भद्रकाली, भ्यामचक्रणी, भीषणा, मंगलागौरी, महामुंडा, माहेश्वरी, मातृकादेवी, मीनाक्षी, मत्स्योदरी, मंदाकिनी, त्रिलोकसुन्दरी, त्वरिता, तालगंधेश्वरी, दुर्गा, कूश्माण्ड दुर्गा, दीप्ता, द्वारेश्वरी, यमदंष्ट्रा, लक्ष्मी, ललिता, लोपामुद्रा, शैलेश्वरी, शिवदूती, शिखीचंडी, शववाहिनी, शान्ती गौरी, शुष्कोदरी, हंसवाहिनी, शतनेत्रा, सहस्रास्या, शूलेश्वरी, सिद्धेश्वरी, सौभाग्यगौरी, श्रृंगारगौरी
वैदिक साहित्य में आदित्यों की निश्चित संख्या नहीं मिलती लेकिन इन्हें अदिति का पुत्र ‘बताया गया है। पुराणों के समय तक इनकी संख्या बढ़कर बारह हो जाती है। इन द्वादश आदित्यों की अपनी पृथक-पृथक विशेषतायें तथा नाम हैं। प्रायः यह माना जाता है कि ये द्वादश- आदित्य वर्ष के बारह माह या प्रकृति के बारह स्वरूपों पर आधारित हैं।काशी में भी द्वादश-आदित्यों की कल्पना की गई है और तदनुरूप अलग- अलग स्थानों पर द्वादश आदित्यों की स्थापना की गई। काशीखण्ड में प्रत्येक आदित्य की स्थापना से संबंधित स्वतंत्र कथाएं मिलती हैं।
हिन्दुओं के पंचदेवों में एक देव गणेश जी भी हैं। गणेश सहित विष्णु, शिव, सूर्य और दुर्गा पंचदेव कहलाते हैं। पंचदेवों की उपासना अनादि काल से चली आ रही है। गणेश विद्या, बुद्धि, धन के देवता और विघ्न विनाशक हैं। इन्हीं गणेश का एक रूप विनायक भी है। स्कन्द पुराण के काशीखण्ड में जहाँ एकादश रूद्र, अष्ट भैरव, नव दुर्गा, नव गौरी आदि का वर्णन है, वहीं काशी में संस्थापित छप्पन से अधिक विनायकों की भी चर्चा की गई है। इनमें छप्पन विनायक सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। मान्यता है कि काशी राजा दिवोदास की नगरी थी। जब भगवान शंकर अपना निवास स्थान बनाने के लिए यहां आये तब दिवोदास के गणों ने शंकर का विरोध किया। उस समय यहाँ उन्हें असुरों से सामना करना पड़ा। असुरों ने देवों को तंग करना शुरू किया। फलतः भगवान शंकर ने गणपति विनायक को असुर संहार के लिए तैनात किया। गणपति विनायक ने असुरों को परास्त कर काशी को शिवनगरी- अविमुक्त काशी के रूप में प्रतिष्ठित होने में सहायता की । काशी की रक्षा के लिए कुल छप्पन विनायकों को नियुक्त किया गया। एक एक दिशा में चौदह विनायक तैनात किये गमे । इस प्रकार कूल बिनायकों की संख्या छप्पन है। सभी विनायकों का अपना अलग -अलग वैशिष्टय है। स्कन्द पुराण के काशीखण्ड में इन ५६ विनायकों की प्रतिमाओं का उल्लेख हुआ है।
उल्लेख मिलता है कि काशी में अपने परम आराध्य हनुमान जी के बारह मंदिरों की स्थापना गोस्वामी तुलसीदास जी ने की थी। पर वह मंदिर कहाँ और किस स्थिति में है ऐसा अभी तक ठीक से पता नहीं चल सका। तुलसीदास जी ने हनुमान जी के बारह विग्रहों की स्थापना की। आज उन बारह हनुमान जी की खोज जारी है। आज काशी में हनुमान जी के हजारों मंदिर व मूर्तियाँ हैं । पंचक्रोशी मार्ग में भी अनेक हनुमानजी हैं। इन मंदिरों में बहुत से विग्रह जागृत माने जाते हैं। अपने-अपने क्षेत्र के मंदिरों में भक्तगण मंगल व शनिवार को पूजा-अर्चन करते हैं। अनेक घरों में लोगों के निजी हनुमान मंदिर भी हैं। तुलसीदास जी द्वारा जिन १२ हनुमान मंदिरों की स्थापना की गयी है उनमें संकट मोचन मंदिर बहुत प्रसिद्ध है।
घाटों के असंख्य दीयों से झिलमिलाती गंगा की अविराम धारा, रंगबिरंगे झालरों से सजे घाटों पर स्थित देवालय, महल, भवन, मठ-आश्रम, धूप- कपूर से सुगंधित, गायन – वादन से तरंगित तट अद्भुत दृश्य उतपन्न करते हैं। देवी -देवताओं की आस्था को समर्पित देव दीपावली काशी में हर साल मनाया जाने वाला विशिष्ट एवं दिव्य लोक- पर्व है। इस पर्व पर सायं काल से रात्रि तक गंगा घाट की छटा निराली होती है। पूरा गंगा घाट दीपों की जगमग रोशनी से रोशन हो उठता है। घाट के एक छोर से लेकर दूसरे छोर अर्थात लगभग चार किमी के क्षेत्र में जगमगाते दीपों की आभा का दृश्य अलौकिक होता है। दीपों की श्रृंखला से उत्पन्न आलोकित नयनाभिराम दृश्य की अनुभूति हृदय को आहलादित करती है । उमंगित और उल्लसित कर देने वाले दृश्य का सृजन होता है। मां गंगा की शोभयमान आरती, धूप-दीप और लोबान की सुवास से सुगंधित हो उठे घाट। घण्टे-घड़ियाल, शंख और डमरू की तरंगित ध्वनि, हाथों में सजी पूजा की थालियाँ मोहक दृश्य का सृजन करती हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन न केवल गंगा तट पर बल्कि वरुणा के तटों पर भी दीपों की जगमगाहट आकर्षित करती है। रामेश्वर स्थित वरुणा तट, कचहरी स्थित शास्त्री घाट आकर्षित करते हैं।
डॉ सीमांत प्रियदर्शी@कॉपीराइट


