
उत्तर प्रदेश में पली-बढ़ी मैं, जहाँ दीपावली के बाद त्योहारी माहौल कुछ शांत हो जाता था, वहाँ “छठ” नामक पर्व के बारे में बस सुना था — कि यह बिहार और पूर्वांचल का बड़ा पर्व है, जिसमें सूर्य और छठ मैया की पूजा की जाती है। लेकिन इसका वास्तविक स्वरूप मैंने तब जाना, जब विवाह के बाद मेरा आगमन बिहार में हुआ।
शरद की सुनहरी धूप और ठंडी होती हवाओं के बीच, पूरा गांव छठ पर्व की तैयारी में डूबा था। हर घर में सफाई, व्रती महिलाओं की निष्ठा, घाटों की सजावट और गीतों की गूंज — सब कुछ इतना नया और पवित्र लग रहा था कि मन में अद्भुत श्रद्धा का भाव जागा।
शाम को जब मैंने पहली बार अर्घ्य देते हुए व्रतिनों को देखा — जल में खड़े, सूर्य को नमन करते हुए, आँखों में विश्वास और चेहरे पर संतोष का तेज — तो मेरे भीतर कुछ बदल गया। ऐसा लगा जैसे यह केवल एक पर्व नहीं, बल्कि आस्था और आत्म-शक्ति का उत्सव है।
धीरे-धीरे मैंने भी इस पर्व को निकट से समझा — नहाय-खाय, खरना, और दोनों अर्घ्य के नियम, उसके पीछे की पवित्र भावना, परिवार और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता।
अगले वर्ष मैंने निश्चय किया कि मैं भी छठ व्रत करूंगी। जब मैंने स्वयं यह व्रत किया, तब जाना कि यह केवल शारीरिक तप नहीं, बल्कि मन की शुद्धि और समर्पण की साधना है। चार दिनों तक उपवास, संयम और सच्चे मन से की गई प्रार्थना ने मुझे भीतर से बहुत शांत और दृढ़ बना दिया।
अब हर वर्ष जब छठ आता है, तो मेरे भीतर एक अनोखा उत्साह जाग उठता है। छठ मैया के गीत सुनते ही मन श्रद्धा से झुक जाता है।
मुझे लगता है, बिहार आना केवल स्थान परिवर्तन नहीं था, बल्कि आस्था और आत्मबल से जुड़ने की एक नई शुरुआत थी।
छठ मैया से मेरा यह बंधन अब मेरी पहचान का हिस्सा बन चुका है — एक ऐसा रिश्ता, जिसमें भक्ति, प्रेम और विश्वास तीनों का अद्भुत संगम है।
स्वरचित
डाॅ सुमन मेहरोत्रा
मुजफ्फरपुर, बिहार



