
पुस्तक समीक्षा:अर्पण
रचयिता -ओमप्रकाश ‘प्रार्थी’
विधा – काव्य संग्रह
जिज्ञासा प्रकाशन गाजियाबाद
पुस्तक मूल्य -₹200/
समीक्षक – मुकेश कुमार दीक्षित ‘शिवांश’
*स्वर्गीय ओमप्रकाश प्रार्थी थे काव्य की विलक्षण प्रतिभा के स्वामी*
जन्मजात काव्य-प्रतिभा के धनी स्वर्गीय ओमप्रकाश प्रार्थी जी के लिए काव्य अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम था। किशोरावस्था में ही प्रार्थी जी ने कविताएँ लिखनी प्रारंभ कर दीं और कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाओं को उजागर करना शुरू कर दिया। उस समय से निरंतर अनेक कविताएँ उन्होंने लिखीं। लेखन का यह कार्य निरंतर चलता रहा, किंतु बीच में पारिवारिक समस्याओं के चलते इसमें व्यवधान आ गया और उन्होंने लिखना बंद कर दिया लेकिन घरेलू समस्याओं से उबरने के बाद उन्होंने पुनः लेखनी उठाई। उस समय उनकी लेखनी अत्यन्त तीव्रता से चली और वे लगातार लिखते रहे। उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुईं। काव्य के साथ-साथ कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हुए। “नारी बनाम आदमी”, “यादों की बारात”, “गुंजन”, “संस्कृत काव्य- त्यागपत्र”, “मेरा गाँव”, “पदावली”, “अर्पण” आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
अर्पण उनका एक प्रमुख काव्य संग्रह है जिसमें उन्होंने ऐसी काव्य रचनाओं का समावेश किया है जो पाठकों पर गहरा प्रभाव डालेंगी।
“अर्पण” की शुरुआत में उन्होंने माँ शारदे की प्रार्थना करते हुए लिखा है—
“थका हुआ हूँ पीड़ित भी हूँ,
पीड़ा का आभास मिटा दो।
माँ के अंतर की ममता का,
कुछ साकार स्वरूप दिखा दो।।”
इसी संग्रह में “अर्पण” शीर्षक से माँ के प्रति प्रार्थी जी का प्रेम कुछ यूॅं झलकता है—
“लो चढ़ा दूँ चरण में सभी फूल अपने,
बहुमूल्य हीरे सभी मन के सपने।
है जो पास मेरे सभी आपका है,
तुम्हारी खुशी के लिए अपना सब कुछ तुम्ही पर लुटा दूं, लुटा दूं, लुटा दूं।।”
राम के प्रति आस्था की झलक भी उनके काव्य-संग्रह में स्पष्ट दिखाई देती है। “निमंत्रण” शीर्षक में प्रभु श्रीराम से कहते हुए उन्होंने लिखा है—
“महल की दीवारें है लगी हैं बरसने
विरह में अगम जड़ लगी लड़खड़ाने
आजा दयानिधि अतिशीघ्र आजा
गिरते महल को बचाने सजाने। ”
छल-कपट भरे इस संसार के प्रति उनकी संवेदना “मुझे कोई ले चलो” शीर्षक में कुछ इस प्रकार की अभिव्यक्ति है—
“छल और कपट का संसार है,जहाँ पर
अन्याय और भय का विस्तार है जहाँ पर……
न धर्म, न दया है, न शर्म न हया है
दम घुट रहा है मेरा, कर दो दया ज़रा-सी,
इस दानवी जहाँ से मुझे कोई ले चलो।।”
कोमलता और क्रूरता का वर्णन उन्होंने “कुसुम” शीर्षक में इस तरह किया है-
“छुये न इन्हें क्रूर हाथों से कोई
है कोमल कुसुम, रंग उतर जाएगा,
ना करें कोई खिलवाड़, न हाल दें,
इनका महका हुआ मद बिखर जाएगा।।”
एकता व मिलझुलकर रहना आज के समय की जरूरत है। हमें द्वेष-भाव भूलकर एक होकर रहना चाहिए। इस संदेश को उन्होंने बड़े ही सहज और सरल ढंग से “समय नहीं” शीर्षक में दिया है—
“झूम-झूम कर मिलो प्यार की बहार में आज द्वेषभाव का समय नहीं, समय नहीं
गुलाल शांति का उड़ा प्रेम रंग,रंग चलो
त्याग, ससयंज भार आज संग संग चलो।”
“ब्रजभोर” शीर्षक में भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लिखा है—
“झूम उठा कण-कण त्रिलोक में बधाई है,
श्याम घनश्याम रटन लगाने लगे,
ऐसी अनूठी श्याम बांसुरी बजाई है,
देव-देवलोक से फूल बरसाने लगे।।”
प्रार्थी जी की भाषा पर अच्छी पकड़ थी। उनकी भाषा-शैली सहज, सरस और सरल है, किंतु कहीं-कहीं उन्होंने गहन और प्रभावी शब्दों का भी प्रयोग किया है। अलंकारों के प्रयोग ने उनकी रचनाओं में और भी चार चाँद लगा दिए हैं। “अभिनय” शीर्षक में अनुप्रास के एक सुंदर उदाहरण की झलक इस प्रकार है-
“रमणीक, रुचारु रसिक रसदा। ”
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि प्रार्थी जी का काव्य-संग्रह, “अर्पण” एक स्वागतयोग्य और सराहनीय पहल है, जो अपने आप में एक अमूल्य निधि है। स्वर्गीय ओमप्रकाश प्रार्थी जी के विषय पर डॉ० संदीप कुमार सचेत जी ने,जिस प्रकार उनके साहित्यिक योगदान को सहेजने का प्रयास किया है, वह वास्तव में सराहनीय कदम है। इस साहित्यिक योगदान के लिए वे भी बधाई के पात्र हैं।
*मुकेश कुमार दीक्षित ‘शिवांश’*
(कवि व साहित्यकार)
चन्दौसी, सम्भल (उ०प्र०)
मो०-8433013409



