पावन कार्तिक मास में, दीप जलाए लोग।
मिटा रहे जग से तिमिर, भगा रहे दुख रोग।।
बिछड़े अपने मिल गए, आए ज्यों त्यौहार ।
चहक रहा है अंगना ,सजा लगे घर द्वार ।।
नाचे -गाए संग में , खाते- पीते संग।
बीत गया क्षण शीघ्र ही, खुशियों में यूंँ रंग।।
लौट रहे हैं लोग अब, तजकर अपना गेह।
मन रह जाता है यही , जाती है बस देह।।
चुरा रहे हैं नैन को, किससे कहते पीर।
दुःख बिछड़ने का बहुत, सहज सहे है धीर।।
ताला लटका गेह पर, तम छाया घनघोर ।
द्वार प्रतीक्षा में खड़ी,कब आएगी भोर।।




