साहित्य

टॉम जैरी और आदमी

वीणा गुप्त

एक दिन टॉम ने जैरी को,
प्यार से बुलाया।
उसकी इस टोन पर,
जैरी को यकीन न आया।
कहा टॉम ने जैरी से –
आओ अब भुलाएं हम
ये खानदानी लड़ाई।
बदल रहा है जमाना ।
नया सब आ रहा है,
छूट रहा सब पुराना।

लिटिल बो- पीप को,
मिल गई है
उसकी खोई हुई शीप।
जैक न जिल ने भी
ले लिया है घर में ही
वॉटर कनेक्शन,
हिल पर जाने की
दूर हुई टेंशन।
हम्टी- डम्पटी भी
फस्ट-एड पा गए हैं।
दुनिया हमारी बदल गई है ,
अच्छे दिन आ गए हैं।
विकास हो रहा है जबरदस्त,
हम भी मिल बैठें, गाएं।
कुछ दूसरों की सुनें,
कुछ अपनी सुनाएं।

जैरी को उसकी बातों में,
सच्चाई नजर आई।
फौरन एक मीटिंग ,
अरेंज करवाई।
कबूतर बुलाया-
मोस्ट अर्जेंट का
संदेशा पठाया ।
डिजनी लैंड और पंचतंत्र के,
सभी कैरेक्टर्स को बुलाया।
होने लगा जंगल में मंगल,
चमकने लगे,लिटिल स्टार
टि्ंवकिल- टि्ंवकिल।

तभी एक आदमी,
सर्वश्रेष्ठ रचना ईश्वर की,
वहाँ आया,
नजारा देख यह,
ठनका माथा उसका,
इनका खुश रहना,
उसे ज़रा भी न भाया।
परेशानी होने लगी,
आदमीयत ताना देने लगी।
कैसे डायजेस्ट कर पा रहे हो
यह सब?
कुछ तिकड़म भिड़ाओ।
भाषा,धर्म,प्रांत,जाति,
देशी विदेशी का
मुद्दा उठाओ।
एकजुट न होने पाए कोई भी,
‘सभ्य हो तुम’
कुछ बस्तियांँ जलाओ,
पत्थर मारो,सिर तोड़ो,
पटरियांँ उखड़ वाओ,
एकजुट न होने पाए कोई भी।
इरादों के इनके धूल चटाओ।

आदमी चेता,
मोबाइल उठाया।
हर फील्ड के ,
महारथियों को बुलवाया।
प्रेस -कॉन्फ्रेंस होने लगी।
फ्लैश चमके खटाखट,
जुबाने बहकीं फटाफट,
विवादों ने तूल पकड़ा,
चैनल्स हुए सक्रिय,
S.M.S माँगे और भेजे जाने लगे।
नारे उछल-कूद मचाने लगे
पॉलिटिक्स गरमाई,
डंडों और झंडों की खेतियांँ,
फ़िजाओं में लहराईं।
इस उठा-पटक में,
पंचतंत्र और डिजनी के बेचारे,
विकास के समर्थक,
भाईचारे के मारे,
सकपका गए,
भूल कहाँ हुई,
समझ न पाए,
ताकने लगे
तथाकथित सभ्य
मानव समाज’ को,
मुंँह बाए।

सभ्य गुर्राया
देख उनकी यह मज़ाल।
चलो ,फूटो यहाँ से,
नहीं तो होगा बुरा हाल।
बड़े आए शांतिदूत,
औकात पहचानो,
पड़े रहो चुपचाप ,
मनाओ खैर।
जल में रह मगर से,
करो मत बैर।
चलेगा यहाँ सिर्फ
हमारा ही राज,
लाठी है हमारी ,
हर भैंस हमीं लेंगे हाँक।

मनहूसियत पसर गई,
चुप हो गए सभी नग़मे।
पल भर में खो गए,
मेल-मिलाप के सुंदर सपने।
दूर दुबका खड़ा था
खरगोश एक,
रहा था सोच।
इस ‘सभ्य’ को आईना
दिखाना ही पड़ेगा।
इतिहास पुराना
दोहराना ही होगा।
कुएँ में इसे फिर
गिराना पड़ेगा।
तभी भय रहित होगा,
समाज हमारा।
गूंँजेगा समता-
एकता का नारा।
दुःख की रात तब
ढल जाएगी।
आशा की उजली
किरण आएगी।
तभी होंगी सबकी
तमन्नाएंँ पूरीं।
ये दुनिया अधूरी,
तभी होगी पूरी।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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