पग चला श्रद्धा के संग, मन में सतनाम,
तीर्थों की ओर बढ़ा, छोड़कर निज ग्राम।
राह कठिन, कठिन पर्वत, किंतु हृदय अडिग—
हर मोड़ पर लगा जैसे प्रभु हैं तन–मन में रमे।
कैलाश की दिशा में उठे हिम शिखर महान,
हर हवा में धीरे-धीरे “ॐ नमः शिवाय” का गान।
मानसरोवर के नीर में जब प्रतिबिंब झलकता,
लगता — शिव ही चेतना में, शिव ही श्वास में बसता।
केदारनाथ की घाटी में बादलों का घेरा,
पाषाण में भी पाया मैंने जीवित-सा बसेरा।
घंटे की रुनझुन से गूँजा पूरा नगर,
जैसे स्वयं महादेव बोले — “मत डरो, हूँ मैं इधर।”
बद्रीनाथ की राह में अलकनंदा बहती,
शीतल जल में तपस्या की धारा बहती।
हरी-भरी घाटी, हिम से ढका परिधान,
हर कदम पर मिला भगवान नारायण का सम्मान।
गंगोत्री से बहता पावन निर्झर,
हर बूँद में जैसे माँ गंगा का साक्षात स्वर।
यमुनोत्री में ऊष्ण झरनों का सुगंधित आलिंगन,
मन बोला — यही शुद्धता, यही जीवन।
अमरनाथ की यात्रा पर बर्फ का उजियारा,
हिमलिंग में शिव का दृश्टांत निराला प्यारा।
शीत में भी एक अग्नि थी भीतर,
शिव रूप का दर्शन बन गया जीवन का तरंगित तट पर।
वैष्णो देवी की सीढ़ियों पर जय माँ का गान,
त्रिकुट पर्वत पर माँ का दिव्य स्थान।
आँसू ढलक पड़े आँखों से अपने आप,
“मेरा भार उतार दिया माँ ने”— मन हुआ निस्स्वार्थ।
प्रयागराज में तीन नदियों का मंगल मिलन,
त्रिवेणी संगम में डुबकी लगी तो शांत हुआ मन।
कुंभ की आरती में दीपों का सागर उभरा,
जैसे हर दिशा में भगवान का आलोक बिखरा।
✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”


