आलेख

अन्नप्राशन संस्कार

योगेश गहतोड़ी "यश"

भारतीय संस्कृति में मानव जीवन को आरंभ से ही संस्कारों की पवित्र श्रृंखला से जोड़ा गया है। इन सोलह संस्कारों में से सातवां संस्कार जिसे अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है, यह शिशु के जीवन का प्रथम आहार संस्कार भी कहलाता है। “अन्न” का अर्थ है भोजन या धान्य और “प्राशन” का अर्थ है उसका ग्रहण या सेवन करना। इस प्रकार अन्नप्राशन संस्कार का तात्पर्य है कि शिशु द्वारा पहली बार अन्न का ग्रहण करना। यह केवल शरीर के पोषण का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जीवन के आरंभ का प्रतीक भी है। जब शिशु माता के दूध से आगे बढ़कर धरती के अन्न को स्वीकार करता है, तब वह प्रकृति से अपने जीवन का सीधा संबंध स्थापित करता है।

*संस्कार का उद्देश्य*
अन्नप्राशन संस्कार का उद्देश्य केवल शिशु को भोजन देना नहीं, बल्कि उसके जीवन में अन्न की पवित्रता और कृतज्ञता की भावना का बीजारोपण करना है।
हमारे शास्त्रों में अन्न को ब्रह्म कहा गया है —

*“अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्”* (तैत्तिरीय उपनिषद् 3.2)
अर्थात् अन्न ही ब्रह्म है, क्योंकि उसी से प्राणों की उत्पत्ति, वृद्धि और पोषण होता है।

यह संस्कार इस भावना को जगाता है कि अन्न केवल शरीर का आहार नहीं, बल्कि प्राण और चेतना का आधार है। इसके माध्यम से शिशु के भीतर यह संस्कार बैठाया जाता है कि वह जीवन में सदैव अन्न का सम्मान करे, व्यर्थ न गवाए और सदा कृतज्ञ भाव से ग्रहण करे।

*संस्कार से पूर्व की शुद्धि और तैयारी*
अन्नप्राशन संस्कार से पहले घर की शुद्धि, अग्निहोत्र या गृहाराधना का विधान किया जाता है।

वेदों में कहा गया है —
*“शुद्धे मनसि शुद्धं कर्म।”*
अर्थात् जब मन और वातावरण दोनों शुद्ध होते हैं, तभी संस्कार का प्रभाव स्थायी होता है।

इसलिए संस्कार से पूर्व दीप, धूप, मंगलगान और वेद-मंत्रों से घर को सात्त्विक बनाया जाता है। यह पवित्रता उस क्षण को दिव्यता प्रदान करती है, जब शिशु पहली बार अन्न ग्रहण करता है।

*संस्कार का समय*
शास्त्रों के अनुसार अन्नप्राशन संस्कार शिशु के छठे महीने में किया जाता है। यदि शिशु पुत्र हो तो छठे या आठवें महीने में और पुत्री हो तो पाँचवें या सातवें महीने में यह संस्कार संपन्न किया जाता है। इसका कारण यह है कि इस आयु तक शिशु का पाचन तंत्र विकसित हो चुका होता है और वह दूध के अतिरिक्त बाह्य अन्न ग्रहण करने में सक्षम बन जाता है। “यह समय ऋतु परिवर्तन का होता है, जिससे शरीर में नई ऊर्जा और स्फूर्ति का संचार होता है।”

*अन्न का चयन और प्रतीकात्मकता*
संस्कार में प्रयुक्त अन्न सामान्यतः शुद्ध चावल की खीर होती है, जो सत्त्वगुण का प्रतीक मानी जाती है। इसके साथ घी, दूध, शहद या दही का प्रयोग पंचमहाभूतों के संतुलन को दर्शाता है।
* *चावल* – पृथ्वी तत्व
* *दूध* – जल तत्व
* *घी* – अग्नि तत्व
* *शहद* – वायु तत्व
* *दही* – आकाश तत्व

इस प्रकार शिशु को पहली बार पंचमहाभूतों का स्वाद और संतुलन दिया जाता है। यह प्रतीक है — शरीर और सृष्टि के अद्भुत संतुलन का, जो वैदिक जीवन-दर्शन की जड़ में निहित है।

*ज्योतिषीय दृष्टिकोण*
अन्नप्राशन संस्कार के लिए शुभ मुहूर्त का निर्धारण तिथि, वार, नक्षत्र और चंद्र स्थिति से किया जाता है। मृगशिरा, रोहिणी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त और श्वति नक्षत्र में किया गया अन्नप्राशन विशेष शुभ माना गया है।

शास्त्रों केअनुसार—
*“चन्द्रेण सह भोजनं सौभाग्यं यत् प्रजायते।”*
अर्थात् चंद्रमा की अनुकूल स्थिति में किया गया अन्नप्राशन शिशु को आयु, सौभाग्य और बल प्रदान करता है।

ज्योतिषीय दृष्टि से इस संस्कार में चंद्र, शुक्र, गुरु और सूर्य की स्थिति विशेष मानी जाती है। चंद्र पोषण का, शुक्र स्वाद और वृद्धि का, गुरु ज्ञान का और सूर्य तेज का कारक है।
कुंडली के द्वितीय भाव (मुख और आहार) तथा चतुर्थ भाव (पोषण और मातृत्व) का विचार भी किया जाता है।

*संस्कार की विधि*
अन्नप्राशन संस्कार को शुभ मुहूर्त में पवित्र वातावरण में किया जाता है। शिशु को स्नान कराकर नए वस्त्र पहनाए जाते हैं। पिता या परिवार के प्रमुख द्वारा संकल्प लिया जाता है कि आज शिशु को प्रथम अन्न ग्रहण कराया जाएगा। इसके बाद गणेश जी, अन्नपूर्णा माता, सूर्यदेव और अन्नदेवता का पूजन किया जाता है।

अन्न के रूप में प्रायः चावल की खीर, घी, शहद या दही का उपयोग किया जाता है। शुद्ध सोने या चाँदी के पात्र में यह अन्न रखा जाता है। पहला ग्रास पिता या दादा द्वारा, दूसरा माता द्वारा खिलाया जाता है।

सभी परिजन बच्चे को आशीर्वाद देते हैं —
*“तेजो वर्धस्व, अन्नं भक्षस्व, आयुष्यम् भव।”*
अर्थात् — तेजस्वी बनो, अन्न का सेवन करो और दीर्घायु हो।

*वैदिक और आध्यात्मिक महत्व*
वैदिक दृष्टि से यह संस्कार अत्यंत गूढ़ अर्थ रखता है। अन्न को केवल भौतिक आहार नहीं, बल्कि जीवन और चेतना का स्रोत कहा गया है।

उपनिषदों में कहा गया है —
*“अन्नाद्भवन्ति भूतानि, अन्नेन जातानि जीवन्ति।”*
अर्थात् सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न से ही जीवनयापन करते हैं।

योगशास्त्र की दृष्टि से यह प्राणमय कोश के सक्रिय होने का संस्कार है। जब शिशु ठोस भोजन ग्रहण करता है, तब उसके भीतर जठराग्नि प्रज्वलित होती है, यही आगे चलकर तेज, बुद्धि और ओजस का आधार बनती है। इस प्रकार यह शरीर और आत्मा, दोनों के पोषण का आरंभिक यज्ञ है।

*माता-पिता की भूमिका*
संस्कार के समय माता-पिता का भाव अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। माता की स्नेहभरी दृष्टि और पिता की श्रद्धापूर्ण भावना इस संस्कार को सफल बनाती है। जिस श्रद्धा से अन्न खिलाया जाता है, वही भाव शिशु के अवचेतन में संस्कार बनकर अंकित होता है। यह संस्कार केवल शिशु का ही नहीं, माता-पिता के कर्म और भावना का भी संस्कार है।

*सामाजिक दृष्टि से महत्व*
अन्नप्राशन संस्कार परिवार और समाज में सामूहिक उल्लास का अवसर बनता है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक उत्सव भी है। परिवारजन, मित्र और रिश्तेदार एकत्र होकर शिशु को उपहार और आशीर्वाद देते हैं। यह संस्कार एक ओर परिवारिक एकता को सुदृढ़ करता है, तो दूसरी ओर सामाजिक संबंधों की मिठास को भी बढ़ाता है।

भारत के विभिन्न प्रांतों में इसे भिन्न नामों से जाना जाता है— बंगाल में “मुक्ताभक्ष”, दक्षिण भारत में “अन्नप्राशनम्”, उत्तर भारत में “भात खिलाना”, महाराष्ट्र में “भोजन संस्कार” परंतु सभी का भाव एक ही है कि अन्न का सम्मान और जीवन के प्रति कृतज्ञता।

*वैज्ञानिक दृष्टिकोण*
आधुनिक विज्ञान भी अन्नप्राशन संस्कार की उपयोगिता को स्वीकार करता है। छठे महीने के बाद शिशु का पाचन तंत्र ठोस भोजन के लिए सक्षम होता है। इस समय पौष्टिक अन्न जैसे चावल, घी, दूध आदि देना उसके शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक है। यह रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है और विकास में सहायक होता है।
इस प्रकार वैदिक परंपरा और आधुनिक विज्ञान दोनों इस संस्कार की महत्ता को स्वीकार करते हैं।

*संस्कार का प्रतीकात्मक अर्थ*
अन्नप्राशन संस्कार जीवन के आत्मनिर्भर चरण की शुरुआत का प्रतीक है। यह धरती और मानव के बीच प्राकृतिक संबंध का प्रथम सेतु है। यह सिखाता है कि भोजन केवल इंद्रिय-सुख नहीं, बल्कि ईश्वर की कृपा और सृष्टि का उपहार है। अन्न का आदर करना और उसे व्यर्थ न करना — यही संस्कार की शिक्षा है। यह संस्कार मानव जीवन में “अन्न–प्राण–ब्रह्म” की एकात्म भावना का उद्घोष है।

*उपसंहार*
अन्नप्राशन संस्कार भारतीय संस्कृति का वह प्रकाश है जो हमें अन्न, प्राण और ब्रह्म के अभेद संबंध की अनुभूति कराता है। यह बताता है कि जीवन का प्रत्येक आरंभ ईश्वर और प्रकृति की कृपा से ही संभव है। शिशु के जीवन का यह प्रथम आहार उसे धरती से जोड़ता है और परिवार को उसके जीवन से जोड़ देता है। अन्न के प्रति श्रद्धा, भोजन से पूर्व कृतज्ञता और जीवन के हर ग्रास में ईश्वर का स्मरण ही इस संस्कार की आत्मा है।

शास्त्रों में कहा गया है —
*“अन्नं न निन्द्यं, अन्नं न परित्यज्यं, अन्नं हि सर्वं जीवनम्।”*
अर्थात् अन्न की निंदा मत करो, अन्न का त्याग मत करो, क्योंकि अन्न ही जीवन का सार है।

अतः अन्नप्राशन संस्कार शिशु के जीवन का प्रथम आहार संस्कार है, जो छठे महीने में किया जाता है। इसका उद्देश्य अन्न के प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता और पवित्रता की भावना जागृत करना है। इस दिन शिशु को शुभ मुहूर्त में पहली बार खीर या घी-दूध से बना अन्न खिलाया जाता है। यह संस्कार शिशु के शरीर, मन और प्राण के विकास का आरंभिक प्रतीक है। वैदिक दृष्टि से यह अन्न, प्राण और ब्रह्म के अभेद का बोध कराता है, जबकि सामाजिक रूप से यह परिवार के आनंद और एकता का उत्सव है। वास्तव में यह संस्कार धरती, अन्न और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का पवित्र संकेत है, जो जीवन में *“अन्नं ब्रह्म”* की अनुभूति कराता है।

*“अन्नप्राशन संस्कार हमें स्मरण कराता है कि प्रत्येक ग्रास में ईश्वर का अंश विद्यमान है और अन्न का आदर ही जीवन का आदर्श है।”*

✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”

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