संध्या समय दिवाकर हेरे,चकवा चकवी उडे़ अनेरे,
भूल गये वे अपने फेरे, विलग हुए क्यों घोर अंधेरे?
हरियाली यौवन बस केचुल,बाजोंमें घिरतीहै बुलबुल,
पत्तों पर बूँदों का हिलडुल,नश्वरता क्या भूलाचुलबुल।
पापपुण्य पछतावा छाया,अनिल अनल संग मेंआया,
फूस हुयी पौरुष की काया, प्रभुवर तेरी कैसी माया।
नीरव आँखें सूना पनघट,भूखा संवेदन प्यासा मन,
जोड़ रही क्या अमृत घट,आयेगा लेकर मनमोहन।
अम्बुज पर ओसों का कन,छुअन लगे जैसे चन्दन,
सीपी मुख में मुक्ता बन, जाती हैं स्वाती अँसुवन।
उचट गया क्यों अंतर्मन,भावे ना कुछ वैरागी मन,
तन कंचन,केशर उबटन,बहकाती है मलय पवन।
धूपछाँव यह कैसी चुभन,हुआ अनल सा अलसपवन,
परस रूपसी का स्पंदन,छनछन कैसा है ये विचलन।
नीर तीर पर मीन विकल,कर सरवर जल का तर्जन,
हिय अन्तर है रहा उबल, घायल तन या पागल मन।
शुष्कअधर व विचलित मन,अंतस में होता है सिहरन,
श्वांसो का वाधित नियमन, क्या ढूंढ़ रहा है अंतर्मन।
पाँवों में पायल का छनछन,शहनाई स्वर धरताव्यंजन,
तप्ततवे का सा छनछन,कलियोंपर अलियों कागुंजन।
मधुशाला बसती नयनन,छलकाती है हाला चितवन,
है गुलाब खुद छिदताकाँटन,सिसकारी भरती हैचुभन।
पन्नग भुजंग बन देता क्रंदन,लहराती अलकों का थिरकन,
माँगन मोहनी दामिनी झलकन,श्याम कसौटी रेखित कंचन।
✍️चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा “अकिंचन”गोरखपुर



