धर्म/आध्यात्म

बुढ़िया माता मंदिर — जहाँ बिना मूर्ति के होती है मां की निराकार स्वरूप में पूजा

354 वर्षों से इचाक में मिट्टी और सिंदूर के पिंड के रूप में पूजी जा रही हैं मां शक्ति

✍️ सुप्रिया सिंह

झारखंड की धरती हमेशा से आस्था, परंपरा और अद्भुत लोकविश्वासों की साक्षी रही है।
इसी आस्था का एक अद्वितीय प्रतीक है — हजारीबाग जिले के ईचाक प्रखंड में स्थित 354 वर्ष पुराना “बुढ़िया माता मंदिर”,
जहाँ आज भी देवी की कोई प्रतिमा नहीं है, बल्कि मिट्टी और सिंदूर के पिंड के रूप में मां की पूजा की जाती है।
यह स्थान भक्तों के लिए केवल मंदिर नहीं, बल्कि निराकार शक्ति की जीवंत अनुभूति का केंद्र है।

मां का निराकार रूप — आस्था से परे अनुभव की अनुभूति

जहाँ अन्य देवी मंदिरों में मां की मूर्ति, स्वरूप या प्रतिमा की पूजा होती है, वहीं बुढ़िया माता मंदिर अपनी अनूठी परंपरा के लिए विख्यात है।
यहाँ कोई मूर्ति नहीं — केवल तीन मिट्टी के पिंड, जिन पर सिंदूर का लेप चढ़ाया जाता है,
और इसी रूप में मां की निरंतर पूजा होती है।

भक्त मानते हैं कि यह निराकार रूप ही मां की सर्वव्यापकता और सर्वशक्तिमान स्वरूप का प्रमाण है।
यहाँ भक्तों को मूर्ति में नहीं, बल्कि मिट्टी के पिंड में साक्षात् ऊर्जा, शांति और कृपा का अनुभव होता है।

पौराणिक कथा — महामारी से मुक्ति का प्रतीक बनी माता की कृपा

स्थानीय लोककथा के अनुसार, वर्ष 1668 में इचाक क्षेत्र में हैजे जैसी महामारी फैल गई थी।
गाँवों में मृत्यु का तांडव था, लोग भय और निराशा में जी रहे थे।
उसी समय एक वृद्धा — बुढ़िया माता — बाजार में प्रकट हुईं।
उन्होंने ग्रामीणों को मिट्टी दी और कहा कि “इस मिट्टी को गाँव से दूर रखो, संकट टल जाएगा।”
लोगों ने वैसा ही किया, और चमत्कारिक रूप से महामारी समाप्त हो गई।

उसके बाद वह वृद्धा गायब हो गईं,
और जहां वह मिट्टी रखी गई थी, वहां तीन दिव्य पिंड उभर आए।
तभी से वह स्थान “बुढ़िया माता मंदिर” के नाम से पूजनीय बन गया।

354 वर्षों से अनवरत पूजा — भक्तों की अटूट श्रद्धा

तब से लेकर आज तक, यानी लगभग 354 वर्षों से मां की पूजा बिना मूर्ति के इसी रूप में की जा रही है।
मां को केवल सिंदूर, फूल, नारियल और जल अर्पित किया जाता है।
साल में दो बार ही मां का वस्त्र बदला जाता है —
एक बार चैत्र नवरात्र में और दूसरी बार शारदीय नवरात्र के दौरान।

नवरात्र और सावन पूर्णिमा के अवसर पर यहाँ भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है।
विशेष रूप से सप्तमी के दिन सिंदूर चढ़ाने की परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है।

निराकार में आकार का दर्शन — आध्यात्मिक संदेश

“बुढ़िया माता” का यह स्वरूप हमें यह संदेश देता है कि ईश्वर मूर्त रूप में नहीं, भावना में निवास करते हैं।
यहाँ कोई मूर्ति नहीं, कोई विशेष वेदी नहीं —
फिर भी हजारों लोग वहाँ पहुंचकर अनुभव करते हैं कि मां हर रूप में सजीव हैं।

यह स्थान इस गूढ़ सत्य को सिद्ध करता है कि भक्ति का अर्थ केवल दर्शन नहीं, अनुभूति है।
भक्तों का विश्वास है कि जो भी सच्चे मन से माता के दरबार में आता है, उसकी हर मनोकामना पूरी होती है।

– बुढ़िया माता — आस्था, परंपरा और लोकविश्वास का संगम

ईचाक का यह मंदिर केवल धार्मिक स्थल नहीं,
बल्कि यह लोकविश्वास और जनभावना की निरंतर धारा है,
जहाँ हर धर्म, हर वर्ग के लोग समान श्रद्धा से पहुंचते हैं।

आज भी यह परंपरा आधुनिकता की दौड़ के बीच हमें याद दिलाती है कि
भक्ति का मूल तत्व मूर्ति नहीं — श्रद्धा, सादगी और विश्वास है।

मेरे शब्दों में

झारखंड की यह पावन धरती, जो प्रकृति और आस्था का संगम है,
उस पर बुढ़िया माता मंदिर यह सिखाता है कि
ईश्वर का स्वरूप निराकार है, और उसकी अनुभूति हृदय में होती है।
यह स्थान केवल एक मंदिर नहीं —
मां की सर्वव्यापक ऊर्जा, लोकविश्वास और भारतीय अध्यात्म का सजीव प्रमाण है।

सुप्रिया सिंह
मॉडरेटर, नेशनल जर्नलिस्ट एसोसिएशन।

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