श्लोक
जातकर्म नामकरणं निष्क्रमणमथान्नदम्।
चूडाकर्म च कर्तव्यमिति धर्मविदो विदुः।।
(मनुस्मृति 2.27)
*अर्थ:* धर्मज्ञ पुरुषों ने कहा है कि जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन और चूड़ाकर्म, यह सब जीवन के प्रारंभ में किए जाने योग्य पवित्र संस्कार हैं।
**1. श्लोक का मूल अर्थ*
*जातकर्म नामकरणं निष्क्रमणमथान्नदम्।*
*चूडाकर्म च कर्तव्यमिति धर्मविदो विदुः।।*
*अर्थ:* धर्मज्ञ पुरुषों ने कहा है कि जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन और चूड़ाकर्म – ये सभी जन्मोत्तर किए जाने योग्य अनिवार्य और पवित्र संस्कार हैं। मनुस्मृति (2.27) में उल्लिखित यह श्लोक मानव जीवन की आरंभिक चेतना के क्रमिक विकास का वैदिक विधान है, जिसमें पाँच संस्कार मानव के मन, वाणी, प्राण, शरीर और बुद्धि, इन पाँचों तत्त्वों को क्रमशः जागृत करते हैं। इस क्रम के पीछे गहरा संबंध ज्योतिषीय शक्तियों यानि ग्रहों— चंद्र, बृहस्पति, सूर्य, शुक्र और केतु से भी स्थापित होता है।
*2. संस्कार का दार्शनिक आधार*
*“जीवो हि संस्कारयुतो भवति धर्ममयी गतिः।”*
*भावार्थ:* मनुष्य अपने प्राप्त संस्कारों के अनुसार ही अपने गुण, विचार, आचरण और जीवन-दिशा का निर्माण करता है। जन्मोत्तर संस्कार मनुष्य की चेतना को शुद्ध बनाते हैं और जीवन को धर्ममय, संतुलित तथा सद्गतिपूर्ण बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। वैदिक विचार में जीवन का वास्तविक आरंभ जन्म से नहीं, बल्कि संस्कारों से होता है, क्योंकि संस्कार ही मनुष्य की मानसिक, प्राणिक और आध्यात्मिक संरचना को दिशा देते हैं।
*3. “जातकर्म” : जन्म-क्षण का पवित्रीकरण*
जातकर्म पंचसंस्कारों में प्रथम है और यह शिशु के मन तथा प्राण को शुद्ध और स्थिर बनाने का संस्कार है। जन्म के समय चंद्र तत्त्व अत्यधिक सक्रिय होता है, इसी कारण यह संस्कार चंद्र के मानस–शीतल प्रभाव से सीधे जुड़ा हुआ है। पिता द्वारा शिशु के कान में *“ॐ”* ध्वनि का उच्चारण मानसिक स्थिरता देता है, जबकि घृत–मधु स्पर्श अग्नि, रस और ओज के संतुलन का आरंभ करता है। ज्योतिषीय दृष्टि से जातकर्म चंद्र-दोष शमन, जन्म-प्राण संतुलन तथा जन्मलग्न की ग्रह-ऊर्जाओं को शांत करने का सूक्ष्म उपाय है।
*श्लोक: “चन्द्रः प्राणमयो मन्ये, जातकर्मे प्रसीदति।”*
अर्थ: चंद्रमा प्राणों को पुष्ट करने वाला और मन को शीतल करने वाला देवता है; जातकर्म संस्कार में उसकी सौम्य शक्ति शिशु के जीवन में स्वास्थ्य, संतुलन और कल्याण स्थापित करती है।
*4. “नामकरणम्” : नक्षत्राधिष्ठित पहचान का संस्कार*
नामकरण संस्कार – पहचान, ध्वनि और वाणी का संस्कार है। वैदिक परंपरा में नाम नक्षत्र के अनुसार रखा जाता है, ताकि नक्षत्र-देवता अपनी ऊर्जा और शुभ कंपन शिशु के जीवन में प्रवाहित कर सकें। धर्मदृष्टि से यह वंश-परंपरा का स्वीकार तथा सामाजिक पहचान का विधान है, जबकि ज्योतिषीय दृष्टि से यह बृहस्पति और पंचम भाव दोनों को सशक्त करता है। नाम और चूड़ाकर्म का संबंध यह है कि नाम वाणी का संस्कार है तथा चूड़ाकर्म बुद्धि का; जब वाणी और बुद्धि दोनों शुद्ध हों, तब ही मनुष्य धर्ममार्ग पर स्थिर होता है।
*श्लोक: “नाम्नि चास्ति महाशक्तिः, जनयत्यात्मनो गुणान्।”*
अर्थ: उचित नाम मनुष्य में गुण और संस्कार उत्पन्न करने की शक्ति रखता है।
*5. “निष्क्रमणम्” : बाह्यविश्व का प्रथम साक्षात्कार*
निष्क्रमण वह संस्कार है, जिसमें शिशु को पहली बार घर से बाहर ले जाकर सूर्य और चंद्र के दर्शन कराए जाते हैं। सूर्य तेज, ऊर्जा और आत्मबल का प्रतीक है, जबकि चंद्र शीतलता, मन और भावनाओं का स्वामी है। दोनों के संयुक्त दर्शन से शिशु के प्राण, मन और शरीर का संतुलन बनता है। ज्योतिषीय रूप से यह संस्कार सूर्य (आत्मबल), चंद्र (मानसिक बल) और तृतीय भाव (बाहरी संसार संपर्क) का समन्वय है। चूड़ाकर्म का संबंध इससे यह है कि निष्क्रमण बाहरी प्रकाश का अनुभव कराता है और चूड़ाकर्म सहस्रार के आंतरिक प्रकाश को जागृत करता है।
*श्लोक: “सूर्येण दीयते तेजः, चन्द्रेण मनश्शिवम्।”*
अर्थ: सूर्य तेज प्रदान करता है और चंद्र मन को शांत करता है; शिशु को इन दोनों का संयुक्त आशीर्वाद प्राप्त होता है।
*6. “अथ अन्नदम्” : अन्नप्राशन संस्कार*
अन्नप्राशन चौथा संस्कार है, जिसमें शिशु को पहली बार अन्न का स्वाद कराया जाता है। वैदिक परंपरा में अन्न को “ब्रह्म” कहा गया है क्योंकि वही शरीर की धातुएँ, रक्त, ओज और संपूर्ण शरीर-तंत्र का आधार है। यह संस्कार न केवल शारीरिक पोषण का आरंभ करता है बल्कि मानसिक संतुलन का सूक्ष्म आधार भी है, क्योंकि कहा गया है- *“जैसा अन्न, वैसा मन”*। ज्योतिषीय दृष्टि से अन्नप्राशन शुक्र (रस, आनंद), राहु (अन्न-विकार) और षष्ठ भाव (स्वास्थ्य) का समन्वय है। चूड़ाकर्म से इसका संबंध यह है कि अन्न शरीर की धातुएँ बनाता है और चूड़ाकर्म बुद्धि की धातुओं—स्मृति, एकाग्रता और विवेक को संवर्धित करता है।
*श्लोक: “अन्नमाद्यं महाभूतं देहमूलं प्रजापतेः।”*
अर्थ: अन्न सभी प्राणियों के शरीर का मूल आधार है।
*7. “चूडाकर्म” : बुद्धि–स्मृति–विवेक का परम संस्कार*
चूड़ाकर्म पंचसंस्कारों का अंतिम तथा सर्वोच्च संस्कार है, जिसका संबंध सहस्रार (ब्रह्मरन्ध्र) की पवित्रता और जागृति से है। यह शिशु की स्मृति-शक्ति, विवेक, बुद्धि और प्रज्ञा को विकसित करता है तथा अध्ययन-अधिकार प्रदान करता है। प्राचीन गुरुकुलों में प्रवेश से पूर्व यह संस्कार अनिवार्य था। ज्योतिषीय दृष्टि से यह केतु (स्मृति, अध्यात्म, मोक्ष) और बृहस्पति (ज्ञान, विवेक) दोनों को सक्रिय करता है। आध्यात्मिक रूप से यह ऊर्ध्व ऊर्जा को ग्रहण करने का माध्यम बनता है।
*श्लोक: “शिखा धर्मस्य मूलं स्यात्, केतुर्बुद्धिप्रदः स्मृतः।”*
अर्थ: शिखा धर्म का मूल है और केतु बुद्धि तथा स्मृति को जागृत करता है।
*8. पंचसंस्कारों की एकात्म व्यवस्था*
पांचों संस्कारों का क्रम मनुष्य के भीतर चेतना के क्रमिक विकास को दर्शाता है— *जातकर्म मन का संस्कार है, नामकरण वाणी का, निष्क्रमण प्राण का, अन्नप्राशन शरीर का और चूड़ाकर्म बुद्धि का विकास करता है। यह क्रम वैदिक मनोविज्ञान के “पंच-अन्तःकरण सिद्धांत”—मन, वाणी, प्राण, शरीर और बुद्धि का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसी क्रम के अनुरूप ज्योतिषीय क्रम भी चंद्र, बृहस्पति, सूर्य, शुक्र और केतु स्थापित होता है, जो यह स्पष्ट करता है कि यह श्लोक केवल संस्कारों की सूची नहीं, बल्कि चेतना-विज्ञान की संरचित व्यवस्था है।
*श्लोक: “मनः पूर्वं ततः शब्दः प्राणः पश्चाद् घृताशनम्।”*
अर्थ: पहले मन, उसके बाद वाणी, फिर प्राण और अंत में आहार—यह क्रम प्राकृतिक विकास का क्रम है।
*9. मनुस्मृति और ज्योतिष का संयुक्त आधार*
मनुस्मृति के अनुसार इन संस्कारों को “कर्तव्य” कहा गया है, क्योंकि ये मानव जीवन की आरंभिक संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। धर्मशास्त्र इन्हें आत्म-विकास का साधन मानता है, जबकि ज्योतिष इन्हें ग्रह-शांति, मानसिक स्थिरता और आध्यात्मिक संतुलन का प्रथम उपाय मानता है। *जातकर्म चंद्र-शांति का, नामकरण बृहस्पति-बुद्धि का, निष्क्रमण सूर्य–चंद्र संतुलन का, अन्नप्राशन शुक्र–राहु शमन का और चूड़ाकर्म केतु–बुद्धि जागरण का* प्रमुख साधन है।
*श्लोक: “धर्मस्य मूलं संस्काराः, ज्योतिषं तस्य दर्पणम्।”*
अर्थ: धर्म का मूल संस्कार हैं और ज्योतिष उसका दर्पण है।
*10. आधुनिक संदर्भ में पंचसंस्कारों की प्रासंगिकता*
आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि जीवन के पहले पाँच वर्ष मानसिक और प्राणिक विकास के लिए अत्यंत निर्णायक होते हैं, जिसमें 80% मानसिक विकास पूर्ण हो जाता है। इसी कारण वैदिक ऋषियों ने इन पाँच संस्कारों को जन्म के तुरंत बाद अनिवार्य माना है। आज के समय में भी जातकर्म भावनात्मक स्थिरता, नामकरण सामाजिक पहचान, निष्क्रमण प्रकृति-संपर्क, अन्नप्राशन पोषण विज्ञान और चूड़ाकर्म शिक्षा, विवेक और स्मृति के विकास का आधार है।
*श्लोक: “आदौ संस्कारिता प्रज्ञा, ततो जीवनसिद्धयः।”*
अर्थ: प्रारंभ में संस्कारित की गई प्रज्ञा ही आगे जीवन की सिद्धियों का कारण बनती है।
*11. उपसंहार*
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि जन्मोत्तर पाँच संस्कार मनुष्य के पाँच मुख्य तत्त्वों—मन, वाणी, प्राण, शरीर और बुद्धि के क्रमिक शुद्धिकरण का दिव्य विधान हैं। धर्मविदों द्वारा इन्हें अनिवार्य बताने का कारण यही है कि संस्कारित मनुष्य का जीवन स्वतः धर्ममय, संतुलित और ज्ञानमय दिशा प्राप्त करता है।
*श्लोक: “ज्ञानं परमं ध्येयम्; चूडाकर्म तदुद्भवम्।”*
अर्थ: ज्ञान जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है और उसका प्रथम आधार चूड़ाकर्म संस्कार है।
मनुस्मृति 2.27 का यह श्लोक जीवन के पाँच पवित्र द्वार खोलता है। यह पाँचों संस्कार मिलकर मनुष्य को संतुलित, संस्कारित, ज्योतिर्मय और ज्ञान-पथ की ओर अग्रसर करते हैं। इसलिए धर्मविद पुरुष कहते हैं— *“चूडाकर्म च कर्तव्यम्”* क्योंकि यही संस्कार पाँचों संस्कारों का पूर्णत्व है।
✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”



