आलेख

त्राहि त्राहि आरति हरन

वीणा गुप्त

   ललित निबंध

एक समर्पित, व्याकुल मन की पुकार है —-

‘त्राहि त्राहि आरति हरन
सरन सुखद रघुवीर’

आर्तता हरणकर्ता, शरणागत वत्सल प्रभु की शरण में जो भी अहंकार त्याग कर आ जाता है,उसके समस्त दुख दूर हो जाते हैं। जहाज के पक्षी के समान,
,जिसके एकमात्र आश्रय प्रभु राम ही  हैं,उसे किसी बात का भय नहीं रहता। यही पुकार लगाई है  विभीषण ने।मन ही मन में तो वे न जाने कब से वे यही पुकार रहे हैं, पर अब यह बात प्रकट हो गई है, सर्वविदित हो गई है।

विभीषण राम कथा के महत्व पूर्ण पात्र हैं।यद्यपि वे कथा के कुछ ही प्रसंगों में आते हैं,लेकिन जब भी आते हैं अपने साधु स्वभाव का परिचय देते हैं और अपनी अमिट छाप पाठक के मन पर अंकित करते हैं।पवनपुत्र, लंका के प्रत्येक भवन में माता जानकी को ढूँढ रहे हैं।लंका के वैभवशाली, सुसज्जित प्रासादों के मध्य एक सादगी और सुरूचिपूर्ण  भवन देखकर वे आश्चर्यचकित हो जाते हैं।
उनका आश्चर्य और बढ़ जाता है,जब वे देखते हैं कि यह भवन रामायुध अंकित है और उसमें तुलसिका-दल शोभा दे रहे हैं। वे सोचने लगते हैं ,लंका तो निशाचरों की नगरी है,यहाँ सज्जन  का निवास कैसे हो सकता है। इसी समय विभीषण का पदार्पण होता है। मुख से राम नाम का उच्चारण करते विभीषण को देख   उनके सभी संशय नष्ट हो जाते हैं। परस्पर परिचय होता है। परिचय के प्रथम क्षणों में ही विभीषण अपने मन की बात प्रकट कर देते हैं। दुराव उन्हें छू भी नहीं गया। कितनी सहजता से पूछते हैं—-

तात कबहु मोहि जान अनाथा,
करिहहि  किरपा भानुकुल नाथा।

पवनपुत्र सहज प्रश्न का सहज उत्तर देते हैं—

सुनहू विभीषण प्रभु की रीति,
करहि सदा सेवक पर प्रीति।

विभीषण आश्वस्त हो जाते हैं।लंका में निशाचरों के मध्य रहना उनकी विवशता है,लेकिन अंधकार से चहुँ ओर घिरे रहने पर भी उनके मन में आलोक है।यह आलोक,यह आभा, उन्हें उनके सद् विचारों ने,उनकी आस्तिकता ने प्रदान की है। किसी से भयभीत हुए बिना उनमें सच बोलने का साहस है।
प्रभु राम के  कार्य की सफलता के लिए हनुमानजी ने स्वयं को नागपाश में  बंधवा लिया है। दुर्मति रावण ने आदेश सुनाया है–

अंग- भंग करि पठवहु बंदर

नीतिनिपुण विभीषण तुरंत विरोध करते हैं—-

नीति विरोध न मारिहहि दूता।

विभीषण लंका को विनाश से बचाने का हर संभव प्रयास करते हैं। रावण को बार-बार समझाते हैं,अनुनय  करते हैं,अपमानित होते हैं। रावण का चरण-प्रहार सह कर भी  विनम्रता से कहते हैं—-

तुम पितु सरिस भलेहि मोहि मारा,
राम भजे हित नाथ तुम्हारा।

लेकिन जब वे देखते हैं कि अब कुछ कहना व्यर्थ है। होनी तो होकर ही रहेगी।वे रावण द्वारा दिए गए निर्वासन को स्वीकार कर,लंका त्याग का निश्चय करते हैं।जिस लंका को बचाने के लिए स्वाभिमान को भी छोड़ दिया,उसी को त्यागना कितना पीड़ाजनक रहा होगा उनके लिए।

वह जाते  समय  स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं,” मैं श्रीराम की शरण में जा रहा हूँ,मुझे कोई दोष मत देना।दोष देना उचित भी नहीं। इस स्थिति को टालने का कितना प्रयास किया। कितना समझाया रावण को। रावण चाहे कैसा भी हो ,है तो सहोदर ज्येष्ठ भ्राता ही। रावण के प्रति उनके मन  में प्रेम है।उसकी बुद्धि और शक्ति पर गर्व है लेकिन उसके अहंकार से, उनकी, अनीतियों से वे कोई समझौता नहीं कर सकते  ।

श्रीराम के पास जाते हुए विभीषण का मन शंका-सागर में डूबता- उतराता है। क्या  राम उन्हें स्वीकार करेंगे या रावण का भाई  होने के नाते  दुत्कार देंगे? यदि ऐसा हुआ भी तो वे राम को कोई दोष नहीं देंगे। अपने भाग्य को ही देंगे,जिसने उन्हें राक्षस,- कुल में जन्म दिया। लेकिन प्रभु ऐसा क्यों करेंगे? वे तो दीनबंधु हैं,अंतर्यामी हैं,अशरण-शरण हैं,प्रणत-पालक हैं,वे उनकी दुविधा को अवश्य समझेंगे।इसी ऊहापोह में ग्रस्त ,मन में राम के सेवक सुखदायक चरण-कमलों के दर्शन की अभिलाषा लिए वे चले ही जा रहे हैं।और राम तो हैं ही भक्त वत्सल। विभीषण के संदर्भ में  सुग्रीव की शंका,

“जानि न जाए निशाचर माया,
कामरूप केहि कारन आया,

को राम पल भर में निर्मूल कर देते हैं—-

शरणागत को जे तजे,
निज अनहित अनुमान।।
ते नर पामर पापमय,
तिनहि विलोकत हानि।।

सुग्रीव ,अंगद और हनुमानजी उनकी अगवानी करते हैं,उन्हें सादर श्रीराम के पास ले आते हैं।विभीषण राम का अनिन्द्य रूप देखकर भावविभोर हो जाते हैं।उनके नेत्र प्रेमाश्रु पूरित हो जाते हैं।धैर्य
धारण कर वे अपना परिचय देते हैं—-

नाथ दशानन कर मैं भ्राता,
निसिचर वंश जन्म सुरत्राता।
सहज पाप प्रिय तामस देहा,
जथा उलूकहि तम पर नेहा।

लेकिन राम रूपी सूर्य के समक्ष सब अंधकार तिरोहित हो जाता है।

प्रसन्नवदन राम दंडवत् करते विभीषण को उठाकर ह्रदय से लगा लेते हैं। कुशल समाचार पूछते हैं।विपरीत परिस्थितियों में भी धर्म- निर्वाह करने पर उनकी प्रशंसा करते हैं। विभीषण कृतार्थ हो जाते हैं।गद् गद् स्वर मे कहते हैं—-

अहोभाग्य मम अमित अति,
राम कृपा सुख पुंज।।
देखउँ नयन विरंचि रचि,
सिव सेव्य जुगल पद कंज।।

तामसी -परिवेश में रहते हुए भी विभीषण की प्रकृति सात्विक थी,इसका स्पष्ट प्रमाण उनके इस आचरण से मिलता है।। कुछ लोगों  की मान्यता के अनुसार विभीषण का श्रीराम से जाकर मिलना अनुचित था। ऐसा करके उन्होंने देशद्रोह किया, बड़े भाई के साथ विश्वासघात किया। उनका यह आचरण उन्हें संदेह के घेरों में ला देता है। क्यों किया विभीषण ने ऐसा? क्या सचमुच यह राजद्रोह था? भ्रातृद्रोह था? स्वार्थ पूर्ण आचरण था? कदापि नहीं। अपमानित होने पर भी उन्होंने बार-बार  रावण को समझाया। क्यों? भ्रातृ-प्रेम के कारण,राजभक्ति के कारण।
उन्होंने अपने आत्मसम्मान को दाँव पर लगा दिया।ऋषि पुलस्त्य के निर्मल यश की दुहाई  दी।सीता  को  आदरपूर्वक राम को लौटा देने  का सद् परामर्श दिया। शत्रु की अजेयता का भी उल्लेख किया।नीति की बात कही—–

काम क्रोध मद मोह सब,
नाथ नरक के पंथ।।
सब परिहरहि रघुवीरहि,
भजहु भजहि जेहि संत।।

उन्होंने श्रीराम के स्वरूप का स्पष्ट उल्लेख किया—-

तात राम नहीं नर भूपाला,
भुवनेश्वर कालहू कर काला।
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।
व्यापक अजित अनादि अनंता।

लेकिन मदोन्मत्त रावण ने उनकी एक न सुनी।हितैषी अनुज पर भरी राजसभा में चरण-प्रहार किया। राज्य निर्वासन का आदेश सुनाया—-

मम पुर बसि तपसन्हि पर प्रीति,
सठ मिलि जाहु,तिनहि कह नीति।
अस कहि कीन्हेसि चरण प्रहारा
अनुज गहे पद बारहि बारा।

इस प्रकार वे अपने आलोचकों के संशय घेरों से अछूते ही बाहर निकल आते हैं। श्रीराम  से उनका मिलन ,अधंकार से निकल  प्रकाश की खोज में व्याकुल मन का,सूर्योदय से मिलन है।उसमें प्रतिशोध और राज्य लिप्सा की तामसिकता का लेश भी नहीं है। राम उनका राज्याभिषेक कर उन्हें लंकापति बनाते हैं लेकिन उनकी यह इच्छा नहीं।वे पहले ही श्रीराम को अपनी इच्छा बता चुके हैं—-

अब कृपालु निज भगति पावनी,
देहु सदा सिव मनभावनी।

लंका के राज्य की प्राप्ति तो प्रभु  श्रीराम के दर्शन का पावन प्रसाद है। राम कहते हैं—-

जदपि सखा तव इच्छा नाहिं,
मोर दरस अमोघ जग माँहि।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा,
सुमन वृष्टि नभ भई अपारा।

कौन ऐसा अभागा होगा,जो राम के हाथों से मिले प्रसाद को सिर आँखों पर न धर ले?विभीषण नीति निपुण हैं। समुद्र- संतरण  का उपाय वे उन्हीं से पूछते हैं—-

सुनु कपीस लंकापति वीरा,
केहि विधि तरहि जलधि गंभीरा।

विभीषण उन्हें सुंदर और अहिंसक उपाय बताते हैं।ऐसा उपाय जिससे उनका सात्विक और कोमल रूप उजागर होता है—

कह लंकेस सुनहू रघुनायक,
कोटि सिंधु सोषक तव सायक।
जदपि  तदपि नीति अस गाई,
विनय करिह सागर सन जाई।

यदि विनय से ही सागर का मन जीता जाए तो शक्ति का प्रयोग ही क्यों? प्रेम से पाई विजय ही चिरंतन होती है,कल्याणकारी होती है।विभीषण इसी के समर्थक हैं इसीलिए राम के  कृपापात्र हैं—

तुम सरीखे संत प्रिय मेरे,
धरहु देह नहिं आनि निहोरे।

विभीषण का चरित्र उदात्त है।सर्व हितार्थ
सर्वस्व त्याग की प्रेरणा देता है। अशिव का परित्याग कर शिव का चयन करने की बात कहता है। शिव ही सत्य और सुंदर है। ‘त्राहि-त्राहि’ की पुकार लगाता आकुल समर्पित मन ही इस मार्ग पर अग्रसर होता है।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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