साहित्य

ये आतंकी किसी के नहीं होते

कुलदीप सिंह रुहेला

ये आतंकवादी किसी के नहीं होते,
न माँ की ममता पहचानते, न किसी का दर्द,
इनकी राहों में न प्रेम के दीप जलते,
न रिश्तों का कोई मोल, न इंसानियत की गर्द।

ये आग बनकर भटकते हैं अंधेरों में,
जहाँ दिल की जगह नफ़रत पलती है,
जहाँ मासूमियत का कत्ल होता है,
और उम्मीदें भी खामोश चलती हैं।

ये दुनिया को जख्मों का उपहार देते हैं,
खुशियों की हर राह को धुंधला कर जाते हैं,
पर इनकी हर साजिश, हर चाल के आगे
सच्चे दिल वाले इंसान खड़े हो जाते हैं।

इनके कदमों से कांपती है वादियों की शांति,
पर हर बार इंसानियत ही जीतती है,
क्योंकि नफरत की उम्र छोटी होती है,
और प्यार की लौ हमेशा दीप सी दीखती है।

इनका न कोई धर्म होता, न मजहब,
बस विनाश की धुन इनके सीने में जलती है,
पर सच लिखता है इतिहास की हर पन्नी पर—
जो दुनिया को दर्द दे, वो खुद दर-दर भटकती है।

इसलिए खड़े हो जाओ इंसान बनकर,
नफ़रत पर प्यार के फूल खिलाओ,
ये आतंकवादी किसी के नहीं होते—
पर तुम सबके हो, ये दुनिया तुमसे ही बच पाती है।

कुलदीप सिंह रुहेला
युवा साहित्यकार
सहारनपुर उत्तर प्रदेश

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