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नियम जरुरत है भेदभाव को समाप्त करने हेतु भी, कार्यक्रम को निरंतर चलाने हेतु भी : डॉ. सत्य प्रकाश

बनारस में एक दुकान है क्षीर सागर। मिठाई की यह दुकान विगत 55 वर्ष से अपने गुणवत्ता को बना कर सबसे महँगी मिठाई की दुकान के रूप में स्वयं को स्थाई कर चुकी है। अब इसकी कई शाखा शहर और आसपास में खुल गयी है।

मित्रों, निश्चित रूप से इस मिठाई की दुकान में मेरे जैसे व्यक्ति यदा कदा ही जा पाते हैं, बहुत सारे लोग तो आसपास की सामान्य दुकानों से अपनी जरूरत की मिठाई खरीद कर खा लेते हैं। मैं आज इस विमर्श में हूं कि, यदि यह क्षीर सागर की दुकान का मूल मलिक शुरुआत में अच्छी मिठाई खिलाने की साधना शुरू करता, और लोगों को मुफ्त में मिठाई बांट कर समाज की सेवा करता तो वह कितने वर्ष तक और कितने लोगों तक अपनी इस क्वालिटी प्रोडक्ट की सेवा पहुंच पाता। आज के मिलावटखोरी के जमाने में अच्छी गुणवत्ता की मिठाई मिल जाना ही अपने आप में बहुत बड़ी बात है, परंतु अच्छी मिठाई मिले चाहे मिलावट की मिठाई मिले सभी को मुफ्त में मिठाई चाहिए, ऐसी चीजों को ही समाज सेवा अगर माना जाएगा, तो निश्चित रूप से समाज में क्वालिटी के साथ काम करने वालों का मनोबल गिर जाएगा।

आज किसी इवेंट का ऑर्गेनाइजेशन बहुत ही प्रोफेशनल तरीके से लाखों लाख रूपए लेकर एक रात में प्रायोजित किया जा सकता है। किसी अच्छे संस्थान से सीखने सिखाने का उपक्रम मुफ्त में अगर उपलब्ध किया जाए तो एक दो महीने या साल भर उसे भी उपलब्ध किया जा सकता है। लेकिन अगर यह सारी चीज मुफ्त में ही सबके लिए उपलब्ध की जाती रहेगी तो यह कितने वर्षों तक और किन-किन लोगों के लिए उपलब्ध कराया जा सकती हैं,यह सोचने का विषय है।

साहित्य सम्मान का कार्य, पुस्तक लेखन का कार्य, समाज को अच्छी गुणवत्तापूर्ण विचारधारा से जोड़ कर रखने का कार्य, सबको अथवा अच्छे लोगों को संग संग रखकर उनको धनात्मक ऊर्जा से ऊर्जावान बनाकर आगे बढ़ाने का कार्य यदि एक विशेष कला है और यह एक दायित्व पूर्ण कार्य है तो इसे चार महीने, छे महीने साल भर या दो साल यदि कोई एक या दो व्यक्ति या दस व्यक्ति मिलकर चलना भी चाहेंगे तो इसे सभी को समान रूप से उपलब्ध कराने में, क्या वे सफल हो पाएंगे? क्या यह बात इसमें नहीं आएगी कि उनको मौका मिला और इनको नहीं मिला!? क्या यह भेदभाव की स्थिति नहीं बनेगी, टीका टिप्पणी की स्थिति नहीं बनेगी कि वहां अमुक व्यक्ति की मनमानी चलती है। क्या इस तरह से कार्यक्रम की गुणवत्ता में दोष नहीं आएगा? यदि बहुत सहनशील व्यक्ति रहे तब भी वह व्यक्ति कितने लोगों को और कितने वर्ष तक अपने ऊर्जा से अपने खर्चे से यह कार्यक्रम करता रह सकता है और यदि वह इसी बात पर प्रेरित हो जाए कि वह चाहे जितना भी कर्म करेगा वह सब कुछ मुफ्त के लिए करेगा तो क्या वह समाज में अपनी गरिमा को बचाए रखने में भी समर्थ होगा? क्या उसके हाथ में कुछ भी बचेगा? क्या उसके परिवार के बच्चे उसकी विशिष्ट अवस्था में उसकी कोई भी बात को सुनेंगे?

ऐसी स्थितियों में यह चिंतन का विषय बनता है कि यदि साहित्य का कार्य करने वाला व्यक्ति किसी नियम विशेष को लेकर लंबे समय तक कार्य करना चाहता है तो उसको ना तो परिवार की अवहेलना मिलेगी और ना ही समाज में किसी को ऐसा साहस होगा कि उसके ऊपर कोई दोषारोपण लगा दे।

जरूर समाज में मुफ्त मुफ्त मुफ्त का शोर मचा कर रंगरेज इस काम को कर रहे हैं। पुस्तक से लेकर पत्रिका से लेकर न्यूज़ चैनल से लेकर और साहित्यिक विमर्श को चलने वाले अनेकों चैनल मुफ्त में ही समाज को सेवा दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में उनके ऊपर ही यह निर्णय होता है कि वह किसी व्यक्ति को कितनी मात्रा में कब स्पेस दें। मुफ्त उपलब्धता किसी भी कार्यक्रम को सम्मान के दृष्टि से देखने के लिए हाहाकार करने कराने में सफल होती है। ऐसा क्लाइमैक्स बन जाता है कि जहां देखो वहां उसी कार्यक्रम और उसी व्यवस्था का नाम और पहचान होता है। हमने ऑनलाइन के काम में बहुत हद तक चार वर्ष तक मुफ्त में सेवा उपलब्ध कराई है, इसमें मात्र ₹100 ₹200 ₹500 की सदस्यता करके लोगों के बीच में कार्य की समझ की स्थापना करने में हमने अपनी पहचान और अपने कार्यक्रम को पहुंचाने के लिए हर संभव प्रयास किया मगर मात्र 100/ रूपये भी देकर कार्य को स्थापित करने के प्रति उदारता न दिखाने वालों को भी अपना उपहास करते देखा। हजारों लोगों तक मुफ्त में सेवा को उपलब्ध कराते रहने के बावजूद, देखा कि हम अपना सारा समय इस काम की प्रचार प्रचार में तो लगा दे रहे हैं लेकिन गुणवत्ता पर कोई काम नहीं हो पा रहा है। संस्था की दृष्टिकोण से कोई भी जुड़ाव अनेकानेक लोगों का नहीं, बस अपनी भाषण बाजी में ही प्रवित्त लोग मुझे दिखे।

मुझे इस बात का खूब एहसास है कि आज भी हमारे विचारधारा का विरोध करने वालों की संख्या कितनी है, उतनी किसी भी अन्य विचारधारा को हतोत्साहित करने वाले नहीं है। अन्य कोई भी संस्था अपने दृष्टिकोण के लिए इतना खुल विमर्श नहीं करती है।

हमें अच्छी तरह पता है कि हमें कोई भी आगे नहीं बढ़ाएगा, लेकिन क्षीर सागर की दुकान जिस प्रकार से अपनी गुणवत्ता को खराब न होने देने की स्थिति में अपने मुफ्त के कार्यक्रम से बच रही है, उसी प्रकार से साहित्य जगत में बिना किसी भेदभाव से सभी से रजिस्ट्रेशन पुस्तक और कार्यक्रम हेतु लेकर ही इस संस्था में उनका जुड़ाव किया जाता है।
यदि किसी वरिष्ठ या विशिष्ट साथी से आर्थिक सहयोग नहीं भी लिया जाता तो उनके ऊपर इस बात का खूब मानसिक दबाव रहता है कि वह इसके खिलाफ जाकर कोई भी गलत टिप्पणी न कर सकें।

हमारा स्पष्ट मानना है कि कोई आदमी अपने जीवन काल में 20-25-50 लोगों को मुफ्त में कोई भी व्यवस्था उपलब्ध करा कर अपना पूरा जीवन बिता सकता है मगर जिस व्यक्ति को हजारों हजार लोगों के जीवन में किसी व्यवस्था को उतारना हो तो उसको एक नियम बनाकर सबको भेद-विहीन तरीका को सीखना ही होगा। रेलवे लाखों लाख लोगों को रोज लेकर चल रही है लेकिन यदि वह टिकट किसी से ले और किसी से ना ले तो हुआ एक दिन भी व्यवस्था को संभालने में सफल नहीं होगी।

हमारी संस्था के कार्यक्रमों को बुलेट ट्रेन कहा जाता है, और बुलेट ट्रेन को प्रीमियम ट्रेन बनाने में हमने अपना योगदान दिया है। समय के साथ जैसे-जैसे इस संस्था ने अपने गुणवत्ता को बड़ा किया है वैसे-वैसे इसके साथ जुड़ने वाले सदस्यों को कुछ अधिभार देकर ही इस संस्था से जुड़ना पड़ा है। आज के समय में अच्छे खासे संख्या में गुणी साथी जो परिश्रमी हैं, उनको शिक्षा साहित्य का काम करने में अपने साथ जोड़ने में यह संस्था सफल हुई है। कम से कम 300 लोग ऐसे हैं जो अपने को इस संस्था से जुड़ा हुआ महसूस करके स्वयं में गौरव महसूस करते हैं।

मेरे मित्रों, जिस दिन आप क्षीरसागर की मिठाई मुफ्त में भी किसी के यहाँ प्राप्त कर लीजिये तब भी यह मत सोचियेगा कि अब यह मिठाई मुफ्त में ही सबको उपलब्ध होनी चाहिए। मेरे से भेदभाव नहीं हो पाता इसलिए नियम से हटकर कोई काम करने के लिए दबाव बनाने का काम मेरे साथ होना मेरे मनोबल को खराब करता है।

सच्ची समाज सेवा मेरी यही है कि ईमानदार आदमी समाज में मेरे कारण पहचान प्राप्त कर लें। मेरे कार्य में सहयोग देने वालों को देखकर ही समाज के अन्य लोग यह समझ लेते हैं कि अमुक व्यक्ति न केवल ईमानदार होगा बल्कि साहित्य के प्रति त्याग भावना से समर्पित भी होगा तभी डॉ. सत्या होप टॉक के किसी प्रयोजन से जुड़ा हुआ है। यह पहचान अपने आप में क्षीर सागर की पहचान से कम नहीं है।

डॉ. सत्य प्रकाश
©®
15.11.25

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