
सौमित्र
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लेखनी आज गुणगान कर,
उस सौमित्र महान का।
राम के प्रिय अनुज का,
बल और बुद्धिनिधान का।
रघुकुल के दीपित नक्षत्र,
पिता दशरथ के दुलारे थे।
रूपवान ,अति गुण निधान,
सुमित्रा के नयन तारे थे ।
कंचन सम गौरवर्ण मनहर ,
श्वेत कमल सम थी छवि।
चंदन सा था पावन चरित,
मन निश्छल, तेजवंत रवि।
शेष नाग के वे अवतार थे ,
अन्याय पर प्रबल प्रहार थे
शांत -कांत ज्वालामुखी थे
सौम्यता , रोष साकार थे।
बसे प्राण श्रीराम में उनके,
हर पल उनका साथ निभाया
विश्वामित्र यज्ञ- रक्षा करके
मारीच- ताड़का को डरपाया।
सीता स्वंयवर में वे भी,
राम संग मिथिला आए थे ।
हुई क्षत्रिय रहित वसुधा,
सुन जनक वचन अकुलाए थे।
अभी करें धनुर्भंग राम,
देखे यह समस्त संसार ।
रघुकुल तिलक लखन तब
बोले थे करके सिंहोच्चार।।
गुरु आयसु पा श्रीराम ने,
किया तब शिव धनुषभंग।
पुलकित हर्षित हुए लखन
मन में भरी हुलास- उमंग।
जब चले राम वनवास को
लखन भी चले बंधु के साथ।
छोड़ सभी सुख अवध पुरी के,
प्रिया उर्मिला का मोह त्याग।
वन में बने सजग प्रहरी से ,
सहा शीत ,वर्षा और घाम।
हर पल साथ निभाया भ्रात का,
लिया नहीं पल भर विश्राम।
सीता हरण का प्रसंग अमंगल,
व्यथित करे अंतर लक्ष्मण का
विकल हुईं कैसे माँ सीता
कातर स्वर सुन भ्रात राम का,
राम गए स्वर्ण मृग के पीछे ,
मान सिया की मृदु मनुहार।
पकड़ लाने को चले उसे वे ,
देने सिया को यह उपहार।
छलना- मृग मारीच बना था,
कपट पूर्ण था उसका वेष।
रावण का गर्हित षडयंत्र यह ,
धारा खल ने तापस वेष।
स्मृति आज भी है उस पल की,
जब भगिनी रावण की आई थी।
उस कामातुरा की प्रणय-याचना,
राम -लखन ने ठुकराई थी।
उसने तब जाकर रावण को,
अपने अपमान की बात बताई।
सीता हरण की योजना,
उसने तभी बनाई थी।
स्वर्ण-मृग था वह बहुत मनोहर,
इधर -उधर चौकडी़ भर -भर कर,
सीता माता को ललचाए।
प्रिया की इच्छा पूरी करने,
राम उसी के पीछे धाए।।
रखना ध्यान सिया का लक्ष्मण,
लखन को आदेश दिया था।
भ्राता की आज्ञा को उन्होंने,
सहर्ष ही शिरोधार्य किया था।
तभी राम का कातर स्वर सुन,
सीता माता अकुलाई थीं।
तात भ्रात है तव संकट में,
लक्ष्मण को शंका बताई थी।
बहुत समझाया था जननी को,
पर आकुल माँ नहीं मानीं बात।
बार -बार लगीं करने लखन पर,
निज वाणी से वज्रआघात।
होना है जो वह होकर रहेगा,
नहीं इसमें किसी का दोष।
सहायता हेतु चले भ्रात की,
मान मातु का यह अनुरोध
जाता हूँ मैं भ्रात समीप अब,
रखना मातु तुम अपना ध्यान।
छद्म वेष में विचरे यहाँ पर,
बहु मायावीअसुर बलवान।
फिर खींची निज धनुष से,
लखन ने अनल भरी इक रेख।
मत करना उल्लंधन इसका,
माँ,यह तव, रक्षा -परिवेश।
शंकित मन से चल दिए
फिर वे उसी दिशा की ओर।
जिस ओर से आ रहा था ,
स्वर अधीर ,कातर घनघोर।।
अभी गए कुछ दूर ही थे
आते देखे भ्रात श्रीराम।
ठनक उठा दोनों का माथा,
कर अमंगल का अनुमान।
लक्ष्मण क्यों आए यहाँ
छोड़ा क्यों सिया का साथ?
राम चरण गह कही लखन ने
सकल घटित कथाबिलखात।
तब कही राम ने उनसे
छल-मृग मारीच प्रसंग।
दोऊ भ्रात व्याकुल भए,
मन अति व्यथित, सशंक।
शंकित हिय ले आए दोनों
मन ही मन रहे इष्ट मनाय।।
सिया रहित देखी कुटीर जब
दोऊ भ्रात विकल बिलखाय।
खग,मृग तरू ,वन वासिन से
पूछत चले अति अकुलाय।
तुम देखी सीता मृग नयनी,
दशा दीन कछु कही न जाय
मग में मिले क्षत जटायु
बतलाई उनको सब बात।
इच्छा की फिर पूरी उनकी
आए ऋष्यमूक गिरि पास।।
पवन तनय से भेंट भई तब,
हृदय उमंगित हर्ष उछाह
मैत्री भई तहाँ सुग्रीव से,
हरा उसका दारुण दुख दाह।
बालि का संहार किया
दिया उसे अभय का दान।
सुग्रीव के निर्देश से फिर,
हुआ सिया खोज- संधान।
हर स्थिति में तुमने दिया,
भ्राता श्रीराम का साथ।।
प्रतिछाया बन साथ रहे,
ग्रीष्म-शीत,दिन औ’ रात।
मेघनाद संग युद्ध किया
सह प्रबल शक्ति आघात
हार नहीं मानी लखन ने,
किया इंद्रजीत का घात।
ले राम-जानकी मात को,
लौटे सब अवध प्रदेश।
जय -जय कीशुभ ध्वनि से,
गूंज उठा सकल परिवेश।
सहज भाव से किया सदा,
निज मर्यादा का निर्वाह।।
उर्मिल के प्रिय कांत तुम,
तव महिमा अपार अवगाह।
श्रीराम अधूरे बिना तुम्हारे ,
तुम बिन अधूरा हर अभियान
रघुकुल के पावन तिलक,
युग-युग हो तव महिमा गान।
सूर्यवंश की उज्ज्वल कांति,
भ्रात-प्रेम के तुम प्रतिमान।
सार्थक हुई लेखनी मेरी,
सौमित्र तुम्हें मेरा प्रणाम।
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वीणा गुप्त
नई दिल्ली




