साहित्य

खुद हीं दीपक बनो

कवि डॉ प्रीतम कुमार झा महुआ

अंधेरे में जब कुछ दिखाई न दे,
वेदना से परे कुछ सुनाई न दे।
उन पलों में भी साथी न घबराओ तुम,
खुद हीं दीपक बनो राह दिखलाओ तुम ।

वक़्त माना कठिन पर गुजर जायेगा,
फिर वो सूरज नया बस नज़र आयेगा ।
धैर्य से काम लो अब न अकुलाओ तुम,
खुद हीं दीपक बनो राह दिखलाओ तुम ।

जिंदगी इस कदर आजमाती रही,
जाल पग-पग में मानो बिछाती रही ।
जीत होगी हमारी अब मुस्काओ तुम,
खुद हीं दीपक बनो राह दिखलाओ तुम ।

सारी दुनियां की नजरें अब तुझपर टिकी,
गम ये टल जायेगा ये दिला दो यकीं।
होके मायूस ऐसे न अलसाओ तुम,
खुद हीं दीपक बनो राह दिखलाओ तुम ।

रात के बाद दिन है ये जग का नियम,
कर ले चाहे जमाना ये हमपर सितम।
दिल को साथी जरा ऐसे समझाओ तुम,
खुद हीं दीपक बनो राह दिखलाओ तुम ।
—-कवि डॉ प्रीतम कुमार झा
महुआ,
वैशाली, बिहार।

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