श्लोक:-
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।
(ऋग्वेद — मण्डल 10, सूक्त 191, मंत्र 2)
अर्थ: हे मानवों! साथ चलो, साथ बोलो, अपने मनों को एकसूत्र में जोड़ो। पूर्वज देवताओं की तरह मिलकर साधना करो, जिन्होंने एकत्व की भावना से संगठित होकर समृद्धि प्राप्त की।
यह श्लोक ऋग्वेद का वह दिव्य संदेश है, जो मानव जीवन, समाज और सभ्यता को एकता की चेतना से जोड़ता है। यह केवल शब्दों का समुच्चय नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों का प्राणतत्व है, जो बताता है कि जब मनुष्य साथ चलता है, साथ बोलता है और एक भाव–चेतना में जीता है, तब ही वह सृष्टि के उद्देश्य के अनुरूप चलता है। यह श्लोक हमें यह स्मरण कराता है कि हमारी शक्ति हमारे व्यक्तिगत सामर्थ्य में नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक चेतना में है।
प्राचीन ऋषियों, देवों और पूर्वजों ने इसी एकत्व को अपना धर्म, नीति और साधना बनाया और उसी के आधार पर उन्होंने समृद्ध सभ्यताओं का निर्माण किया। इस मंत्र में निहित संदेश आज भी उतना ही आवश्यक है जितना वैदिक काल में था, क्योंकि समय चाहे कितना बदल जाए, मानवता की नींव सद्भाव, सहयोग, समन्वय और समभाव पर ही स्थिर रहती है। यह श्लोक हमें विभाजन नहीं, एकत्व का मार्ग दिखाता है और यही मार्ग शांति, प्रगति और सत्य की दिशा में ले जाता है।
*संगच्छध्वं* — अर्थात साथ चलो। ऋग्वेद का यह वाक्य हमें सिखाता है कि मनुष्य अकेला नहीं, बल्कि समाज का अंग है और उसकी उन्नति सामूहिक सहयोग से ही संभव है। यह शब्द बताता है कि दिशा एक हो, उद्देश्य एक हो और यात्रा संयुक्त हो तो साधारण प्रयास भी महान परिणाम दे जाते हैं।
*सं वदध्वं* — यानी मिलकर बोलो। यहाँ वाणी केवल शब्दों का आदान–प्रदान नहीं बल्कि संवाद की शुद्धता, आदर और मधुरता का प्रतीक है। जहाँ वाणी कटु नहीं बल्कि सौम्य और सत्य हो, वहाँ संबंध मजबूत होते हैं और समाज में विश्वास, प्रेम और समझ की धारा बहती है।
*सं वो मनांसि जानताम्* — अर्थात मन भी एक हों। शरीर साथ हों और वाणी में समन्वय हो, पर मन अलग दिशाओं में हों तो एकता अपूर्ण रहती है। यह मंत्र आग्रह करता है कि मन से मन जुड़ें, विचारों में समरसता हो और उद्देश्य एक हो, तभी सच्ची एकता जन्म लेती है।
*देवा भागं यथा पूर्वे* — यानी जैसे देवों ने किया था। यहाँ देवता केवल दिव्य शक्तियाँ नहीं, बल्कि वे श्रेष्ठ गुण हैं जिन्हें हमारे पूर्वजों ने सत्य, संयम, सेवा, ज्ञान और समभाव के साथ आत्मसात किया। यह श्लोक हमें प्रेरणा देता है कि एकता केवल सिद्धांत नहीं, बल्कि जीवन की परंपरा है जिसे महान आत्माओं ने निभाया है।
*संजानाना उपासते* — अर्थात एक भाव से मिलकर साधना करते थे। यह लाइन हमें बताती है कि जब उद्देश्य पवित्र और भावना निर्मल होती है, तब सामूहिक चेतना असंभव को भी संभव बना देती है। यही भावना विश्व–शांति, मानवता और लोककल्याण का मूल आधार है।
ऋग्वेद का यह श्लोक मानवता को एकता, सहयोग और सामूहिक चेतना का दिव्य संदेश देता है, जिसमें कहा गया है कि जब मनुष्य साथ चलता है, साथ बोलता है और अपने मनों को एकसूत्र में जोड़ता है, तभी उसके प्रयास सार्थक और समाज समृद्ध होते हैं। इस मन्त्र में वाणी की मधुरता, विचारों की समरसता और उद्देश्य की समानता को सच्चे मानव धर्म के रूप में स्वीकार किया गया है। देवताओं का उदाहरण देकर यह बताया गया है कि सत्य, संयम, सेवा, ज्ञान और समभाव के साथ यदि लोग संयुक्त होकर साधना करें, तो असंभव भी संभव हो जाता है। अतः इस श्लोक का सार यही है कि मन, वाणी और कर्म में एकता ही जीवन की शक्ति, शांति और कल्याण का आधार है क्योंकि जहाँ एकत्व है, वहीं वास्तविक प्रगति और दिव्यता का वास है।
इस मंत्र का सार यही है कि —
*हम साथ हैं, इसलिए हम पूर्ण हैं।*
*हम संगठित हैं, इसलिए हम शक्तिशाली हैं।*
*हम एक हैं, इसलिए हम दिव्य हैं।*
यही ऋग्वेद का संदेश है—
🌹 *“एकता में ही शक्ति है,* 🌹
🌹 *और शक्ति में ही मंगल है।”*🌹
✍️ योगेश गहतोड़ी “यश”



