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उत्तर दो

वीणा गुप्त

जनता को सोया मत जानो,
जनता  जगी हुई है।
जल्द बोलने पर आएगी,
मूक जो अब तक बनी हुई है।

इसके प्रश्नों का उत्तर तुम,
क्या दोगे, कैसे दोगे ?
बातें वही पुरानी ही हैं,
कोई  नई नहीं  हैं।
जनता को सोया मत जानो,
जनता जगी हुई है।

एक समय था,इस जनता ने,
पलकों  पर तुम्हें  बैठाया था।
मान तुम्हें जन-मन की आशा,
भव्य ताज पहनाया था।
वही ताज क्यों हुआ कलंकित ?
क्यों  दीप्ति न उसमें शेष रही?
लोक हुआ क्यों हित से वंचित?
हर आस क्यों मरू में भटक रही?
ले प्रश्नों का अंबार सामने,
जनता खड़ी हुई है।
जनता को सोया मत  जानो,
जनता जगी हुई है।

खड़ी हुई इस जनता को,
तुम कैसेअनदेखा कर  दोगे?
कोटि-कोटि आंँखों के सपने,
तुम कैसे निज हित हर लोगे?
लोकतंत्र के उन्नायक तुम,
जनता के भाग्यविधायक तुम,
क्या फिर फुसला लोगे इसको ,
क्षमता इतनी बची हुई है?
जनता को सोया मत जानो,
जनता जगी हुई है।

जनता जब जाग जाती है,
मशालें  उठा लेती है।
खोदने नींव शोषण की,
कुदालें उठा लेती  है।
नहीं डरती है यह तब,
तोप और तलवारों से।
भूख और लाठियों से,
खूंख़्वार  मजहबी नारों से।
देश भक्ति के ढोंग से तेरे,
यह अनजान नहीं है।
जनता को सोया मत जानो,
जनता जगी हुई है।

जो चाहती है करवा ही लेती है,
जब एक हो यह कदम बढाती है।
यही विवश,अक्षम जनता तब
महाशक्ति बन जाती है।
पर्वत डोल उठते,सागर थर्राते हैं।
बवंडरों में तुम जैसे उड़ जाते हैं।
निर्मम रथचक्र  काल का,
घूमता   उठता  अतिवेग से ,
कितने गिरे,कितने मरे हैं
सामने इसके ,गिने भी न जाते हैं।
जनता की रोके राह कौन?
जान पर सबकी बनी हुईं है।
जनता को सोया मत जानो,
जनता जगी हुई है।

जनता तो प्रलय की पाली है,
हर हाल में ज़िंदा रह लेगी।
पर तुम तो फूलों पर पले हुए,
दशा तुम्हारी क्या  होगी?
बहुत सहा,अब और नहीं,
तीसरा नेत्र यह खोलेगी।
ज्वालामुखी है यह जनता,
लावे  के स्वर में बोलेगी।
जीने के लिए मरने को
जनता अब मचल गई है।
जनता को सोया मत जानो,
जनता जगी हुई है।

वीणा गुप्त
नई दिल्ली

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