आलेख

विषपान में अमरत्व

डॉ.उदयराज मिश्र

यूँ तो विषपान शब्द अपने आप में इहलीला की समाप्ति, विनाश और एक अनुचित कृत्य का प्रतीक माना जाता है; किंतु जब बात मान, प्रतिष्ठा, लोककल्याण अथवा धर्म की रक्षा की हो, और जब अन्य सभी उपाय निष्फल हो जाएँ, तब कभी-कभी परिस्थितिवश किया गया विषपान ही मानव को अमरत्व तक पहुँचा देता है—चाहे वह विष द्वेषवश दिया गया हो या धर्मी उद्धेश्य से स्वयं ग्रहण किया गया हो।
द्वेषवश प्रदत्त विष भी जब सहनशीलता, प्रेम और लोकहित की भावना के साथ पिया जाता है, तब वही अमृत बन जाता है। यही कारण है कि मीरा का विषपान निष्काम भक्ति, अटूट प्रेम और प्रभु-समर्पण की चरम सीमा का उदाहरण है; और भगवान सदाशिव द्वारा किया गया विषपान जगत्-रक्षा का अद्वितीय आदर्श।
रहीमदास ने भी मान सहित विषपान को अपमान के अमृत से श्रेष्ठ बताते हुए कहा—
“अमिय पियावत मान बिनु, रहिमन मोहिं न सुभाय।
मान सहित मरिबो भलो, जो विष देत बुलाय।।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार समुद्रमंथन के समय निकले चौदह रत्नों में हलाहल ऐसा महाविष था, जिसने संपूर्ण सृष्टि को संकट में डाल दिया। देवता और दानव—दोनों ही असहाय थे। तब जगत्पिता महादेव ने देवकल्याण हेतु उसे पान कर लिया और अपने कंठ में धारण कर लिया। इसी से वे नीलकंठ कहलाए।लोक मान्यता में कहा गया है—
“मान सहित विषपान करि, शंभु भये जगदीश।
बिना मान अमृत पिये, राहु कटायो शीश।।’’
यह दृष्टांत स्पष्ट करता है कि सम्मान के साथ किया गया आत्मबलिदान ही मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाता है।
विश्व इतिहास भी इसी सत्य की पुष्टि करता है। महान दार्शनिक सुकरात को सत्य और नैतिक शिक्षा बंद न करने के कारण तत्कालीन शासन ने विषपान का दंड दिया। परंतु मृत्यु के क्षणों में भी सुकरात सत्य के साथ अचल खड़े रहे। उनका अंतिम संदेश—
“सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं’’
आज भी समस्त विश्व में अमर है।इसी प्रकार मीराबाई को भी कृष्णप्रेम के कारण विष दिया गया, किंतु प्रभुकृपा से उनका कुछ न बिगड़ा। उनका अमरत्व वस्तुतः विषपान रूपी परीक्षा में विजयी होकर प्राप्त हुआ।
कभी-कभी राजनेताओं को भी लोकमत, विपक्ष, राजनीतिक दबाव और जनआक्रोश के बीच कठिन निर्णय लेने पड़ते हैं। किसानों के हितार्थ बनाए गए, परंतु विपक्ष द्वारा हानिकारक बताए गए तीन विवादित कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा भी वस्तुतः लोकरंजन और शांति के लिए प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किया गया विषपान ही है—एक ऐसा निर्णय जो तत्काल भले ही कटु प्रतीत हुआ हो, परंतु भविष्य में उनके निर्णय-धैर्य और राजनीतिक संयम के कारण उन्हें ऐतिहासिक अमरत्व प्रदान करेगा—इसमें कोई संदेह नहीं।
मानव के छह शत्रु,जो मानव शरीर में ही रहते हैं,उन्हें वास्तविक महाविष या छः महाशत्रु कहा जाता है।
लोभ, क्रोध, मत्सर, मद, मान और ईर्ष्या—
सदैव जागृत या सुप्त रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—
“तब लगि बसहिं हृदय खल नाना।
लोभ क्रोध मत्सर मद माना।।’’
इसके अतिरिक्त ईर्ष्या और निंदा मानव के छठे और सबसे भीषण दोष हैं। ये महाविष इसलिए हैं क्योंकि इन्हें बाहर से लाना नहीं पड़ता—ये तो भीतर ही निवास करते हैं।इन दुर्गुणों का दमन ही सच्चा विषपान है।
मनुष्य जब क्रोध का उत्तर अक्रोध से और असाधुता का साधुता से देता है, तभी वह अपने भीतर छिपे विष को अमृत में बदलता है।संस्कृत में कहा गया है—
“सहसा न विधधीत क्रियाम्;
अविवेकः परमापदां पदम्’’
अर्थात, बिना सोचे-समझे तात्कालिक प्रतिक्रियाओं में बह जाना जीवन को विषतुल्य बना देता है। संयम ही वास्तविक अमृत है।
विषपान का मर्म प्रतिक्रियाशीलता नहीं, सहनशीलता होती है।वास्तविक जीवन में विष कोई द्रव्य नहीं, बल्कि कुप्रवृत्तियाँ हैं।जो व्यक्ति क्रोध को धैर्य से,दुष्टता को सद्वृत्ति से,अपमान को मौन-शक्ति से,और ईर्ष्या को आत्मविकास सेजीत लेता है,वही निरहंकारी विषपायी बनकर समाज में अमर हो जाता है।
विषपान का अर्थ विनाश नहीं, बल्कि संयम का वरण है।महानता दीर्घायु होने से नहीं, उत्तम आचरण और उत्तम कर्म से प्राप्त होती है। यही जीवनमुक्ति और अमरत्व का वास्तविक मार्ग है।

–डॉ.उदयराज मिश्र
नेशनल अवार्डी शिक्षक
9453433900

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