भारतीय इतिहास के गौरव-स्तंभों में छत्रपति शिवाजी,महाराणा प्रताप,गुरु गोबिंद सिंह आदि का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है।किंतु यदि किसी नाम को ‘धर्म की ढाल’, ‘मानवता के रक्षक’ और ‘त्याग-तपस्या के प्रतीक’ की उपाधि सबसे पहले दी जाए, तो वह नाम गुरु तेग बहादुर का है। नौवें सिख गुरु, एक निर्भीक योद्धा, दार्शनिक संत और धर्म-स्वातंत्र्य के महानतम प्रहरी—गुरु तेग बहादुर का जीवन स्वयं में एक उपनिषद है। उनका चरित्र बताता है कि “जीवन की ऊँचाई तलवार की नोक से नहीं, सिद्धांतों की दृढ़ता से मापी जाती है।उनका जीवन स्वयं में धर्मो रक्षित रक्षित: का जीवंत उदाहरण है।
सनातन संस्कृति में शास्त्रों और धार्मिक ग्रंथों को संतों और संन्यासियों का प्रमाण माना जाता है किंतु गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान ने यह सिद्ध कर दिया कि जो हाथ धर्म की रक्षा हेतु शस्त्र नहीं उठाते वे अपने शास्त्रों की भी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते।इस महान पराक्रमी,दृढ़ निश्चयी और धर्म ध्वज रक्षक का जन्म 1621 ई. में अमृतसर के गुरू हरगोबिंद जी के घर हुआ। बचपन का नाम ‘त्याग मल’ था, किंतु मुगल अत्याचारियों के विरुद्ध युद्ध में दिखाई गई असाधारण वीरता के कारण उन्हें ‘तेग बहादुर’ की उपाधि मिली।
उनके व्यक्तित्व की तीन प्रमुख विशेषताएँ विशेष उल्लेखनीय हैं—प्रथम कि उनका जीवन अद्वितीय वीरता की मिसाल था।गुरु तेग बहादुर युद्ध-शास्त्र में प्रवीण थे। वे बचपन से ही निर्भीक स्वभाव के थे। परंतु उनका वीरत्व केवल शस्त्रधारण तक सीमित नहीं था; यह उस नैतिक साहस में प्रकट होता है, जब उन्होंने कहा—
“धर्म हेतु सिसु दिया, सीस दिया पर सार न दिया।”
तपस्वी और संतस्वरूप उनके व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष था।युद्ध-कौशल के साथ उनका अंतर्मन अत्यंत शांत, भक्तिमय और तपस्वी था। गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित उनकी वाणी जीवन की अनित्यता, त्याग, वैराग्य और ईश्वर-भक्ति का दिग्दर्शन कराती है।
उनके उपदेशों में मिलता है—
“जो नारायणु तजि भजहि मायहि, तिन की गति कछु कहि न जाई।”
इसके अतिरिक्त सर्वधर्म समभाव उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था।गुरु तेग बहादुर की दृष्टि में धर्म किसी एक पंथ का नाम नहीं, बल्कि मानव समाज की आत्मा है। वे कहते थे कि यदि धर्म नहीं बचा तो इंसानियत भी नहीं बचेगी।
गुरु ग्रंथ साहिब में उनकी 115 पदों की वाणी संकलित है। इनमें जीवन-दर्शन, नीति, नैतिकता और गहन वेदांत मिलता है।
उनकी वाणी आत्मा को जागृत करती है—
“मन चंचल चहु दिसि धरि मन, मन ही माहि समाना।”
उन्होंने आनंदपुर साहिब की स्थापना कर उसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक उन्नति का केंद्र बनाया। वहाँ लोगों को आत्म-रक्षा, धर्म-रक्षा और जीवन-शुद्धि का मार्ग सिखाया।मुगल बादशाह औरंगज़ेब के ज़ुल्मों से आतंकित कश्मीर के हिंदू पंडितों ने जब रक्षा माँगी, तब गुरु तेग बहादुर ने स्वयं को उनके धर्म-स्वातंत्र्य के लिए समर्पित कर दिया। यह विश्व इतिहास का अद्वितीय प्रसंग है, जहाँ एक धर्माचार्य दूसरे धर्म की रक्षा के लिए स्वयं को आहूत करता है।
औरंगज़ेब चाहता था कि भारत में केवल इस्लाम रह जाए। कश्मीरी ब्राह्मणों पर जबरन मतांतरण के आदेश के पीछे उसका यही उद्देश्य था। हिंदू समाज भयभीत था। तब किसी ने कहा—
“यदि कोई महान आध्यात्मिक गुरु इस्लाम स्वीकार कर ले, तो लोग स्वतः परिवर्तित हो जाएँगे।”यह सुनकर गुरु तेग बहादुर खड़े हुए और बोले—
“धर्म की इस अस्मिता की रक्षा का भार मेरे सिर।”
गुरुजी को गिरफ्तार कर चाँदनी चौक, दिल्ली में यातनाएँ दी गईं। उनके साथियों—भाई मती दास, भाई सती दास और भाई दयाला—को भी क्रूरतापूर्वक शहीद किया गया।गुरु तेग बहादुर से कहा गया—
“इस्लाम स्वीकार कर लो, प्राण बच जाएँगे।”गुरुजी ने स्मित हँसी में उत्तर दिया—
“सिर जाए तो जाए, पर धर्म न जाए।”24 नवम्बर 1675 को उन्होंने अपने शीश का बलिदान देकर सनातन धर्म, संस्कृति और आस्था की रक्षा की। यह बलिदान केवल सिख-कौम का नहीं, सम्पूर्ण भारतवर्ष का गौरव है।
गुरु तेग बहादुर की शहादत मानव-इतिहास में अद्वितीय है।उनका संदेश साफ है—धर्म का अर्थ केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि न्याय, करुणा और मानव-स्वतंत्रता है।अन्याय का प्रतिकार न करना भी एक प्रकार से अत्याचार है।सत्ता के भय से सिद्धांतों का त्याग नहीं होना चाहिए।
उनके पुत्र गुरु गोविंद सिंह जी ने उन्हें “हिन्द की चादर” की उपाधि दी।एक ऐसी ढाल, जिसने पूरे राष्ट्र को अपनी आभा में सुरक्षित किया।
गुरु तेग बहादुर केवल सिख परंपरा के गुरु नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा के अमर दीपक हैं।
उनका जीवन बताता है कि—“वह मृत्यु अमर हो जाती है, जो धर्म के लिए दी जाती है।”आज भी दिल्ली का गुरुद्वारा ‘शीश गंज साहिब’ उनके अमर बलिदान की गाथा सुनाता है और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता है कि—
धर्म की रक्षा, सत्य की विजय और अन्याय के विरुद्ध खड़े होना ही मानव-जीवन का सर्वोच्च कर्तव्य है।




