
सुभग वर्ण से सजी- धजी
इस अलंकृता मुक्ता कविता को,
जिसकी अलक अंधेरी रात
चंद्रकिरण सा सुंदर गात,
मुख जैसे हो खिला प्रभात
नाना प्रकृति लाञ्छनों से
नित नया विभूषित करते हो
इसको तुम रचना कहते हो
यह……
पीठ फेरकर नंग-धड़ंगे
बच्चों की बिखरी टोली से,
क्रंदन से श्रवण हटा
मोद पाते कोयल की बोली से
वो अमराई, वो तरुणाई,
वो भव्य गलीचों का वर्णन
सत्यं से दृष्टि हटाते हो
सपना तुम अपना कहते हो
यह तुम …..
पैशाचिकता नग्न तांडव
दिखा रही है मानव मन पर,
देखो तनिक विवर्ण समाज को
एक अट्टहास करता दूजे पर
मन की यंत्रणाओं से बोझिल
बूंद- बूंद कर रिसता मानव
फिर भी आगे बढ़ता है
इसको तुम जीना कहते हो
यह…….
मन में जमा तनाव के डेरे
खुद से ही घबराया मानव,
कदम-कदम विश्वास के हाथों
देखा किया चला सा मानव,
हारा थका घिसटता चलता
शब्द प्रयोग उसे है करता,
व्यक्त ठहाकों में घुटता मन
इसको तुम हंँसना कहते हो
यह…….
आशा बिसारिया चंदौसी




