साहित्य

रेत सी फिसलती है उम्र

नीरज तँवर

​रेत सी फिसलती है उम्र कभी हाथ न आ पाई
कब सुबह हुई कब शाम ढली कुछ समझ न आई
इक पल हँसी दूजा पल गम कहानी बनती चली आई
वक़्त की इस दौड़ में ज़िंदगी यूँ ही चलती आई
बचपन की गलियाँ वो बेफ़िक्री के दिन थे
वो जून की छुट्टियां अब खत्म हुई भाई
पलकों पे ठहरा है बीता हुआ कल
उसे याद करते करते जिंदगी आज को भूल आई
मंज़िलों की चाहत में साँसें भागती चली आई
आँखों में सजी चाहतें सपनों के पर लगाई
हर चोट इस दिल पे इक निशान छोड़ आयी
ये वक़्त है साहब ये रुकता नहीं रुकाई
​फिसलती रही रेत उपर बिजली बरस आयी
कवि ; नीरज तँवर
Mobile no : 8901151535

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