
मेरे दुलारे!
ओ अनाम बलिपंथी!
आ ,मेरी आशीष ले।
ग्राम तेरा,नाम तेरा,
सब अपरिचित।
काम तेरा, पर सुपरिचित।
आ तू मेरी गोद में आ।
नन्हे शिशु सा,
तेरे रक्त-चर्चित भाल पर मैं,
स्नेह-चिह्न अंकित कर दूँ।
मैं तेरी भारत-जननी
चिर ऋणी तेरी।।
आ मेरी आशीष ले।
तू भी था बिरवा,
किसी के आंँगन का।
तुझे भी सुनाई होंगी ,
माँ अनगिन लोरियांँ।
तुझ पर भी बलिहारी होगी,
एक माँ ,वत्सल -मूर्ति।
छलके होंगे नयन उसके,
बार-बार तेरी व्यथा पर,
माँगने को दुआएंँ,
उठे होंगे सौ बार कर।
छोड़ ममता भरा अंचल,
दौड़ आया तू निठुर बन।
मेरे आंँसू पोंछने।
आ तू मेरे दुलारे!
आ मेरी आशीष ले।
प्रतीक्षा में बैठी होगी ,
उदास इक विरहिन कोई।
सिंदूर माँग में सजाए,
माथे पर बिंदिया लगाए,
कासनी परिधान धारे,
चूड़ियाें की झंकार करती।
अनुपमा वह वधू तेरी
और तू ,निर्मोही सिद्धार्थ बन
त्याग कर अपनी यशोधरा
चला आया मेरी पुकार सुन।
आ ,ओ मेरे दुलारे!
आ मेरी आशीष ले।
तुतली बोली में बुलाता,
ठुनकता ,मचलता दुधमुंँहा तेरा,
नाम की तेरे रट लगाता,
माँ के आंँचल में सिसकता,
खिलौने की आस करता
सो गया होगा।
और तू तोप,गोले ,बंदूक लेकर,
अभिमन्यु बन वीरता दिखाने,
चला आया मुझे बहलाने।
ओ अनाम बलिपंथी,
मेरे दुलारे!
आ मेरी आशीष ले।
पिता तेरे,गर्व धारे,
धड़कते दिल को संभाले,
धीर सबको देते होंगे।
और तू अनजान बन ,
मेरा रक्षा हेतु सबसे,
मोड़ मुँह यूँ चला आया।
मेरे अनाम बलिपंथी,
मेरे दुलारे!
आ मेरी आशीष ले।
आ तू मेरी गोद में आ।
दूंँगी तुझे मैं सारी ममता,
सारा दुलार।
अविरल बहते आंँसुओं से,
तेरा तन दूंँगी पखार।
दिया क्या मैंने तुझे,
ओ लाल मेरे?
रक्त,पीड़ा,घाव,
मृत्यु के अंधेरे।
मैं भी माँ हूँ पुत्र,
पीड़ा से तेरी व्याकुल,व्यथित हूँ।
जिसने किया सर्वस्व अर्पित
उस वंचित पुत्र को मैं
भला कैसे धीर मैं दूंँ?
कैसे तेरी पीर हर लूंँ?
आ तू मेरी गोद में आ।
रक्त- चर्चित भाल पर तेरे,
स्नेह चिन्ह अंकित कर दूँ।
ओ मेरे अनाम बलिपंथी,
पुत्र मेरे ,मेरे दुलारे,
आ ,तू मेरी गोद में आ।
बलिपंथी बोला—
माँ!न हो तू व्यथित यूँ,
मैं न वंचित पुत्र तेरा।
तेरी करुणा में बसा हूँ,
इतिहास ने मुझको उकेरा।
तेरी मुक्ति,प्रसन्नआनन,
देखना था लक्ष्य मेरा।
आज सपना हुआ पूरा,
जन्म सार्थक हुआ मेरा।
माँ! मै चिर ऋणी तेरा।
मैं तो तेरी गोद में ही,
सदा सोना चाहता हूँ।
एक क्या अनेक जीवन,
तुझे देना चाहता हूँ।
भाल पर अंकित कर मेरे,
स्नेहाशीष जननी मेरी।
धन्य मैं,चिर धन्य मैं,
धन्य है यह स्नेह -वर्षण।
तुझसे ही अस्तित्व मेरा ,
स्वीकार कर मेरा समर्पण।
“मैं भी धन्य हुई आज,
तुझ सा वीर सपूत पाकर।
देख तेरा यह समर्पण,
भीग आया मेरा अंतर,
आ तू मेरी गोद में आ,
मेरे दुलारे!बलिपंथी मेरे!
आ मेरी आशीष ले ।”
वीणा गुप्त
नई दिल्ली



